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12 Jun 2020 · 1 min read

आहत हूँ

आहत हूँ देख इस दुनियाँ को,
शर्मशार होती मानवता।

वाक़ई जो अब तक ना हुआ,
हो रहा है अब।
खो रही इंसानियत,
जुदा हो रहे अपने।

कचड़े के डिब्बे में छोड़ नवजात को,
तनिक ममता को शर्म न आयी।
कहाँ गयी वो करुणा,दया और ममता,
इतनी हया भी ना रही।

आए दिन बस एक ख़बर,
मर गयी इंसानियत इस क़दर।
रिश्तों का ही गला घोंट,
अपना कुकृत्य छिपाते लोग।

ऐसा भी क्या हो गया,
मर्यादा को भी खो रहे।
अपनी न तो इज्ज़त आबरू,
दूसरों की भी छीन ले रहे।

नज़रें रखो सीधी अपनी,
ज़्यादा टेढ़ी अच्छी नहीं।
गर अच्छे पर उतर आए,
तब न अच्छे रह पाओगे।

इंसान तो जैसे शव हो गए,
शवों की क्या मर्यादा होगी।
जिसे बाँध यूँ खिंचते हो,
जैसे रस्सी बंधा सामान।

शवों की क्या बात करूँ,
मूक प्राणियों को भी न छोड़ा है।
अपने पाप के गढ्ढ़े में,
उनको भी धकेला है।

गर बचाना मानवता को है,
जिंदा रखो इंसानियत को।
रहो मर्यादा में तुम,
कुकर्मी इतना ना हो।

Language: Hindi
2 Likes · 2 Comments · 256 Views
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