आस
क्या कहें किस दौर से गुज़र रहे हैं ,
दोस्त दुश्मन बने , अपने अजनबी बन रहे हैं ,
औरों की खुशियों में भी खुश हो रहे थे हम ,
अब अपनों की खुशियों में भी खुश ना रहे हम ,
एक अजीब सी ब़ेचैनी हर वक्त ताऱी रहती है ,
हर दिन की सरगर्म़ियाँ अब तो भारी रहती हैं ,
हर कदम पर ज़िंदगी की एक जंग सी जारी है ,
मुस्तक़बिल का पता नहीं आलमे बेजारी है ,
हालात की इस बेचारगी का इल्ज़ाम किसको दें ?
इंसाँ खुद इंसाँ का दुश्मन बना मुज़रिम कौन किसको कहे ?
अच्छे दिन के फिरने की आस जगाए रहता हूं ,
ख़ुदा क़रम फ़रमाऐं ये दुआ़ करता रहता हूं ,