आस ही आस में हसरत न ये मारी जाये
आस ही आस में हसरत न ये मारी जाये
एक शब उसके ख़ियाबाँ में गुज़ारी जाये
लाला-ओ-गुल में भले शाम गुज़ारी जाये
ज़िंदगी शोख़ मनाज़िर पे न हारी जाए
क्या इसी सोच में बैठा है मुहब्बत का तबीब
आज की रात न बीमार पे भारी जाये
हम यही सोच के ख़ल्वत में मरे जाते हैं
एक लग़्ज़िश से न तौक़ीर हमारी जाये
ऐसे असबाब निगाहों से नुमाया कर दे
ख़ुश्बुएँ ले के तेरे दर से भिकारी जाये
जिस की आँखों में फ़रोज़ाँ हो वफ़ा के मंज़र
प्यार की बात उसी दिल में उतारी जाये
एक बीमार-ए-मुहब्बत का मुदावा होगा
कूच-ए-दिल में अगर बाद-ए-बहारी जाये
जिस की चौखट पे नमूदार अना हो ‘ख़ालिद’
ऐसे दरबार में झोली न पसारी जाये