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13 Jun 2024 · 1 min read

आस भरी आँखें , रोज की तरह ही

आस भरी आँखें , रोज की तरह ही
झरोके से दूर तक ,
पगडण्डी के छोर पर टिका के बैठा हूँ

अब तो चीड़ के पत्तों से
बर्फ भी पिघल रही है
पगडंडियां भी साफ़ हैं

सुबह की धुंध से शायद
उनके आने की सुगबुगाहट का भान हो

पर शायद नहीं
यह आवाज तो छत
से टपकती बूंदों की है
उनके क़दमों की आहट नहीं

अतुल “कृष्ण”

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