** आस्था ***
दर्द जब पीर बन कर उभर गया
दिल का दुःख जाने किधर गया
पीड़ा पीड़ा पीड़ा वो कहता गया
दर्द ना जाने कब का पिघल गया ।।
?मधुप बैरागी
आस्था श्रद्धारूपी सीढ़ियों के माध्यम से गन्तव्य तक पहुंचने वाली वो मंजिल है जो हासिल करने के बाद विश्वास न करने वाली कोई बात नहीं रहती है ,आस्था समर्पण की वह पूर्णावस्था है जहाँ पहुंचने पर कोई अन्य आप को तनिक भी विचलित नहीं कर सकता,गुमराह नहीं कर सकता लेकिन एक सम्भावना रहती है यदि अंध श्रद्धा है तो आप राह से भटक जायेंगे एवं अर्श से फर्श पर आते दे नहीं लगती वरन रसातल में जाने से अंध श्रद्धालु को कोई रोक नही सकता ।अतः श्रद्धा ,श्रद्धालु और श्रद्धा व अंध श्रद्धा को कसौटी पर कसकर देख लें तो ज्यादा अच्छा होगा ।।
?मधुप बैरागी
बीज रूप में आया मैं था
कुछ विकसित हो दुनियां देखी ।।
आँखे खोली अनजाने में
बचपन बीता हंसने रोने में ।।
आया लड़कपन का दौर दूसरा
असमंजस में डाला था मुझको
निर्णय नहीं ले पाता मैं था
क्या करना क्या नही करना ।।
आया दौर जवानी का अब
कुछ करता मैं हूँ
कुछ करवाते वो है ।।
होना वही है जो विधि को मान्य
हो मानव मन मैं चाहे जो काम्य।।
?मधुप बैरागी