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16 Dec 2024 · 4 min read

आस्था

आस्था
वैसे तो अंधविश्वास और आस्था से जुडी ढेर सारी घटनाएँ मेरे मानस पटल पर उभरती रहती है लेकिन यहाँ पर आस्था के कुछ चुनिंदा और अंचीन्ह उदाहरण का जिक्र कर रहा हूँ।मुझे ऐसा लगता है कि मैं यौवनावस्था की जिन वाक्यायों से आपको अवगत कराने जा रहा हूँ वह एक तरफ आपको भरपूर मनोरंजन देगा तो दूसरी तरफ आपको उस अबोधता को दाद देने के लिए मजबूर करेगा। तो चलिए चलते हैं उस अटूट विश्वास को देखने जिसका आप कभी कल्पना भी न किये होंगे।
बात उन दिनों की है जब मैं देवी दयाल उच्च विदयालय में पढ़ाया करता था। आज से लगभग चालीस साल पहले। दस बजे से चार बजे तक विद्यालय में पढाता था।सुबह-शाम डेरा पर कुछ विद्यार्थियों को ट्यूशन पढ़ाने का काम करता था । मेरा डेरा स्कूल के बहुत नजदीक था।साथ ही जिस मोहल्ले में मैं रहता था वहां पढ़नेवाले बच्चों की संख्या ज्यादा थी। डेरा पर लडके-लड़कियां पढ़ने के लिए आने लगे । कुछ नौवां-दसमा के थे और देखा-देखी कुछ आई.एस.सी के लडके- लडकियां भी पढ़ने आने लगे।
उस समय मैं बैचलर था, मेरी शादी-विवाह न हुई थी। सुबह में 10-12 विद्यार्थियों का दो बैच पढ़ाता था और शाम में भी दो तीन बैच पढ़ा लेता था। दस से चार एक स्कूल में पढ़ाना पड़ता था। रोटी बनाने मुझे नहीं आती थी ।भात सब्जी बना लेता था। दाल बनाने जहमत कभी-कभी उठा उठाता था। सुबह में जो भात-सब्जी खाने के बाद बच जाता था उसी से स्कूल से आने के बाद काम चलाता था। सब्जी क्या थी? आलू उबालकर चोखा बनाता, हरा मिर्चा और प्याज के फोरन में हल्दी नमक डालकर उसे भुनता, पानी डालता, उसमें टमाटर डालता, डभका देता और सब्जी तैयार।वही सुबह के बचे चावल सब्जी से शाम का काम चलाता और बच्चों को पढाने के लिए चौकी पर आसन जमा देता। मैं चौकी पर बैठता,दो ओर बेंच लग जाती और शिक्षा का अनुष्ठान जारी।
ऐसी परिस्थिति में कितना दिन काम चल सकता था? काम ठीक से न कर पाता था। न खाना बनाने का समय मि़लता और न बाजार से खाद्य-सामग्री चावल, आटा,दाल, सब्जी आदि लाने का। काम ठीक से न चलते देख बहुत लोगों से kah सुनकर एक सेवक का इंतजाम किया गया । उसका नाम बहुत बड़ा था- राम स्नेह कुमार बिदुपुरी । लेकिन मैं उतना बड़ा नाम नहीं पुकारता था । मैं संक्षेप सनेहिया कहकर पुकारता था।
वह वैशाली जिला का रहनेवाला था जिस जिला से मैं भी था।उसे खडी हिन्दी बोलने न आता था, वह वैशाली जिला के देहाती भाषा में ही अपना उदगार पटना जैसे शहर में व्यक्त करता था। खैर भाषा तो मात्र अपनी जरुरत बताने का माध्यम है ।वक्ता की बात श्रोता समझ जाए भाषा का काम खतम। वही बाजार से राशन पानी लाने लगा,खाना आदि बनाने लगा। उसकी बोली में बहुत मिठास था,बोलने का तरीका भी गजब था। एक दिन वह बाजार से सडा-गला नींबू ले आया । मैंने पूछा- ऐसा सडा- गला नींबू कैसे ले आया? उसका निधरक् जबाब सुनिये- अजी, सब नींबू के टो टो के देखली जे गुल गुल बुझलई ओकरा ले अलीऐई। सुनकर मैं हँसने लगा और मैंने कहा – जो रे गदहा।
जब कभी पढ़ाते-पढ़ाते मन उब जाता था, मानसिक रूप से थक जाता था तब सनेहिया को बुलाते था और मैं बज्र मुर्ख की तरह usase कुछ- कुछ बातचीत करता था। एक दिन बातचीत के क्रम में उससे पूछा – अच्छा सनेहिया, यह बताओ तु कौन-कौन भगवान का पूजा करते हो ?इसपर वह काफी खुश हो गया और भगवान की व्याख्या अपने तरह से करने लग लगा।
वह बहुत तन्मयता के साथ बोला –”अजी हम बहुत देवता-पित्तर के बारे में जान ही .एक ठो अनेरी भांट,दोसर बखरोहिया के ब्रह्म बाबा, आ—उ–र बरांटी के भुइयां बाबा आउर महावीर जी ,आउर हलुमान जी आउर बजरंगबली आ—उ–र — —— “ बीच में उसका प्रवचन में टांग अड़ाते हुए मैंने कहा – “ अब बस कर।बहुत हुआ तोहर महावीर जी ,हनुमान जी और बजरंगबली. तुमको नहीं मालुम है कि हनुमान जी, महावीर जी और बजरंगबली एक ही देवता होते हैं| मेरे दलील को नकारते हुए वह बोला –“अजी, अप्पने पढावे के सिवा कुछो न जानअ ही ।उ तीनों तीन गो भगवान होअहथिंग।फिर जब मैंने कहा – “तो बताओ वो तीन देवता कैसे हुए?” वह पारंगत विद्वान की तरह मुझे समझाता- “उ जे कच्छा पेनहथीन और हाथ में पहाड़ ले ले रहअहथीन उ हलुमान जी होअहथींन आउर तींनकोनिया लाल रंग के झंडा बांस के ऊपर में फहरा हथीन आउर नीचे पत्थर के ऊपर सिंदूर से टिकल रहअ हथीन,चाउर,चना छीनटल रहअई हई उ महावीर जी होअहथीन” तब मैं उसकी बात काटते हुए कहता- “ और बजरंगबली कौन हैं ?” फिर बडी गंभीरता के साथ बोलना शुरू किया – “ जे अपपन करेजा फाडले रहअहथीन और ओमें रामचंदर जी सीता जी आ उ र लक्षुमन जी देखाई दे हथीन उ बजरंगबली होअ हथीन” .आज भी जब उसकी वह आस्था याद करता हूँ तो मैं अपने को हाशिए पर पाता हूँ|
अब चलिए मेरे साथ गंगा नदी के घाट।वहाँ दूर दराज-देहात से महिलाएं दशहरा स्नान कराने आती हैं। नदी पुलीन पर भींगे शरीर बालू का सात पिंड बनाती हैं उन सातों पिंडों में सात देवी का दर्शन करती हैं और उन्हें सिंदूर मकुंदाना फूल धुप से पूजा कर अनन्त सुख पा अपनी आस्था का इजहार करती हैं।इस तरह अनेकों स्तूप बनाते हैं और पूजा अर्चना के उपरांत बालू में सारे स्तूप विलीन हो जाते हैं।यह भी एक आस्था का एक अजब नमूना है।

Language: Hindi
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