आसाध्य वीना का सार
ज्ञानी गुणी साध सके ना जो
साधी जाती कैसे असाध्य वीणा
नियति थी प्रियम्वद् की
या स्वरसिद्ध की विद्या थी
कैसे था विश्वास वीना पर
हारे थे जिससे जाने माने कलावंत
नही,
भूलना पड़ा था सब कुछ
राजसभा,अपने को, जो था
सबसे बढ़कर
डूब गया था अकेलेपन में
कंबल पर अभिमंत्रित होकर
स्वयं को सौंप उस वीना को
बैठा मोद भरा बालक बनकर
हे किरीट के विशाल वृक्ष
ये वीना है तेरा ही अंश
मैं अज्ञानी विद्यार्थी बन
बैठा तेरी तरु की छाया में
यह वीना गोद नही मेरी
मैं प्रियम्वद बैठा गोद में तेरी
त्याग अहंकार के लोलूप को
जब वह और वीना एक हुई
तब जा कर जीवित हुआ
वह किरीट तरु
जिससे बनी थी आसाध्य वीना
देख रहे सब ज्ञानी सब कलावंत
हतप्रभ रोमांचित और एकांत
वीना अब स्वयं को छूने को
प्रेरित कर रही केशकंबली को
किलक उठे थे स्वर शिशु के
जब निकला संगीत स्वयंभू
जिसमे सोता है अखंड
ब्रह्म का मौन ,
महासून्य की वह ध्वनि
जिसमे डूबे सब एक साथ
राजा रानी मंत्री संतरी
और सारा राज दरबार
ध्वनि वेग की सरिता में
उतरे सब अपने ही पार
राजा सुनता विजय नाद
रानी सुनती प्रेम विचार
कोई सुनता जीवन की पहली धुन
कोई सुनता विकराल काल !!
शेष अगले अंक में……