आषाढ़ का मौसम
“आषाढ़ का मौसम”
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मुझे दिल्ली जाना था।चूँकि मैं एक चित्रकार हूं। वहां कई विशिष्ट चित्रकारों व युवा चित्रकारों के रंगों से सराबोर कला का प्रदर्शन देखने जा रहा हूं।मेरा रंगों से लगाव तो बचपन से ही हैं। लेकिन चित्रकारी मुझे इसलिए पसंद है क्योंकि यह बेरंग जिन्दगी को भी रंगना सीखा देती है। मैंने रंगों से ही जीवन की उपयोगिता जानी है।रंग… वाह… रंग के साथ रंगीन जीवन।
मैं एक राज की बात बताने जा रहा हूं। उम्र के पैतालीसवे पड़ाव में हूं और मैं नाप-तौल कर बोलने वाला इन्सान हूं। मुझे मन की बात हर किसी के समक्ष साझा करने में संकोच अनुभव होता है। लेकिन फिर भी आज मन बहुत कुछ कहना चाहता है।
मैंने बचपन में अपनी मां को नहीं देखा। एक रोज मैंने अपने पिताजी से पूछा:- सभी बच्चों की मां होती है और मेरी मां कहां है? पिताजी निरुत्तर हो गए । मैंने ज़िद की। तब जाकर बताया कि मां मेरे जन्म के समय मर गई थी और मैं अपराधबोध हो उठा। लेकिन पिताजी ने मेरे जीवन में मां की पूरी भरपाई की।
मेरे पिताजी ईमानदार पुलिस अधीक्षक थे। वे अपराधी के लिए कठोर व्यक्तित्व और मेरे लिए सौम्य-शालीन स्वभाव। मुझसे सदा नम्रता से ही पेश आए। पिताजी मेरी मां से अटूट स्नेह रखते थे। तभी तो उन्होंने दूसरी शादी नहीं की।मेरी तरह वो भी नारी का सम्मान करते थे। पिताजी से मेरी शिकायत थी कि वे अपने कार्य में अधिक व्यस्त रहते थे।अपना समय घर में कम थाने में अधिक बिताते थे।मैं इस शिकायत छोड़कर अपना समय दादी के साथ बिताता था।
एक दिन मेरे मन को भापकर उदास और मासूम चेहरे को देखकर उन्होंने मुझे वाॅटर कलर और ब्रश लाकर दिया। ताकि मैं अपनी मां की कमी और स्वयं का अकेलापन दूर कर सकूं।
मुझसे कहने लगे:-“देव, इससेे सुन्दर चित्र बनाकर मुझे बताना। तुम्हारी मां को रंग बहुत पसंद थे।”
मुझे उस वक्त रंगों को देखकर कोई खुशी नहीं हुई थी। मुझे गुस्सा आया था कि पिताजी मुझे रंग देकर अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ रहे है। लेकिन मुझे इतना कहां पता था कि पिताजी मुझे रंग के रूप में मां की ममता दे रहे हैं। फिर क्या था? मैं इन रंगों में ही डूब गया।और आज रंग मेरा पेशा है। मैं एक विशिष्ट चित्रकार हूं। युवा चित्रकारों का मनोबल बढ़ाने दिल्ली जा रहा हूं।
मैं चित्रकार हूं लेकिन फिर भी मुझे यह आषाढ का मौसम अच्छा नहीं लगता। यह बारिश मुझे अच्छी नहीं लगती।हर स्थान पर गन्दगी और कीचड़।और मेरी ट्रेन भी तीन घंटे लेट हो गई है। अभी-अभी प्लेटफार्म में घोषणा हुई थी।
मैं यहां इस बरसात में प्रकृति की खूबसूरती क्या देखूं? किचड़ और गन्दगी के सिवा? खैर! फिर भी मैंने आषाढ़ की सौन्दर्यता पर कई चित्र को अपने कैनवास में जगह दी है और आज मेरी इस मौसम के प्रति घृणा से कहीं अधिक प्रेम और खुबसूरती के साथ आषाढ़ के मौसम को पेश किया है और खूब वाहवाही बटोरी है।
लेकिन आज इसी मौसम का आलोचक बन बैठा हूं।अब किया भी क्या जाए? यहां प्लेटफार्म में तीन घंटे खाली बैठना भी तो आसान नहीं। मैं तो कभी भी खाली नहीं बैठता और खालीपन में ही रंगों का आश्रय लेता हूं।अभी मेरे पास रंग नहीं है वरना भला मैं आलोचक क्यों बनता?
मैं स्वयं से ही प्रश्न पूछता हूं कि यदि ईश्वर ने बरसात का मौसम नहीं बनाया होता तो क्या होता? और प्रत्युत्तर भी मेरे पास ही है ।बरसात के बिना संसार विपदा का विषय बन जाता। अगर मैं स्वार्थी न बनकर सभी जीवों के लिए विचार करूं तो पानी बहुत उपयोगी है।जब मुझे किसानों का ख्याल आता है तो उनके लिए इस ऋतु के बहुत मायने होगें? वो तो जमीन में बीज बोने के बाद टकटकी लगाए आसमां की ओर ही देखते रहते हैं और बदल की एक छटा पर ही उछल पड़ते हैं।यह उचित भी है। यदि बरसात न हो तो खेत कैसे लहराएंगे? खेत न लहराए तो धान कैसे उगेगा? धान न उगे तो इस जीवन की आपूर्ति कैसे होगी? बिल्कुल धन्य हैं प्रभु, और उसकी यह विचित्र कल्पना।
दिल्ली जाने वाली ट्रेन को प्लेटफार्म में आने में अभी भी लगभग एक घंटा बाकी है।यह यात्रा मेरे लिए बहुत उबाऊ है।काश, इस यात्रा में अपनी मिसेज मुखर्जी को साथ ले आता तो कितना अच्छा होता? मैं अपनी पत्नी को प्यार से मिसेज मुखर्जी कहता हूं।मेरी पत्नी का नाम निशा देवदत्त मुखर्जी था। मैंने नाम संक्षिप्त कर दिया। क्योंकि मुझे अच्छा लगता है उसे मिसेज मुखर्जी कहना।
बेचारी वो तो साथ दिल्ली चलने को बहुत उत्सुक थी। मैंने ही मना किया था।एक तो यह बरसात… ऐसे मौसम में मिसेज मुखर्जी को कितनी परेशानी होती न? इससे बेहतर है कि वो घर में ही रहें।
लेकिन मिसेज मुखर्जी तो अपने नाम निशा के विपरीत मेरे जीवन पथ में अंधेरे में चांदनी के समान है। पहले मैंने कभी भी एक स्त्री को जानने की कोशिश नहीं की थी। मिसेज मुखर्जी ने एक स्त्री से मेरा परिचय करवाया। मेरे जीवन में मां की जितनी भी कमी रहीं। उसने पत्नी के साथ एक मां बनकर भी जीवन पूर्ण कर दिया। आज तक मैं मिसेज मुखर्जी के प्रेम का कोई मूल्य चुका नहीं सका। मैंने जाना कि स्त्री शांतिपूर्ण, सौम्य स्वभाव और बहुत सरल होती है और मैं एक स्त्री का सम्मान करता हूं।
लेकिन यह स्त्री इतनी परेशान क्यों हैं? जो अभी-अभी प्लेटफार्म नंबर तीन में ट्रेन से उतरी है।उसे देखकर ऐसा नहीं लगता कि वो कलकत्ता की रहने वाली है। चेहरे पर खौफ और अनजान परेशानी। आखिर यह इतनी परेशान क्यों हैं? क्या उसकी ट्रेन छूट गई है? या उसे कोई अन्य परेशानी हैं?मुझे इससे क्या? उसकी आंखें कितनी लाल-लाल है? जैसे लगता है कि वह खूब रोई हो। और बार बार अपने रूमाल से नाक साफ कर रही है। क्या यह मौसम की वजह से? वो बार बार किसको फोन कर रही है? किससे बार बार पूछ रही है कि तुम कहां हो? इतनी रात यहाँ अकेली क्या कर रही है। क्या मुझे उसके पास जाकर जानकारी लेनी चाहिए? नहीं-नहीं मुझे इससे क्या?
हां अब बारिश रूक चूकी हैं। मेरी ट्रेन प्लेटफार्म नंबर चार पर आने वाली हैं और मैं यहां क्या कर रहा हूं? मुझे भी अपने प्लेटफार्म में पहुँच जाना चाहिए। किसी भी वक्त ट्रेन आ सकती हैं। मैंने यही सोचकर अपना बैग उठाया। इस बैग में ज्यादा कुछ नहीं था।केवल एक दो ड्रेस और कुछ ज़रूरत का समान। जो मिसेज मुखर्जी ने डाला था। सिर्फ कल समारोह है।परसो तो घर आ ही जाऊंगा।
ट्रेन प्लेटफार्म में आ गई थी और मुझे एक खाली सीट मिल गई है-बिल्कुल खिड़की के पास वाली। इसका मतलब है कि मेरी यह यात्रा आरामदायक होगी। मुझे खिड़की के पास बैठना बहुत अच्छा लगता है।ख़ासतौर पर इस मौसम में… ठंडी ठंडी हवा…और यह मौसम वाह क्या कहना…यह लड़की अभी भी सहमी सी उस प्लेटफार्म में ही है? उसके साथ आखिर क्या हुआ है ? क्या सच में वह किसी बात को लेकर परेशान है? क्या मुझे इसकी मदद करनी चाहिए? अचानक उस लड़की ने उनको इस तरह से देखते हुए देखा। उन्हें अच्छा नहीं लगा कि कहीं एक पुरुष का देखना।वह मुझे अभद्र न समझ लें। उन्होंने अपनी नजर हटा ली। मैं तो उसका पिता तुल्य हूं। लेकिन हूँ तो एक पुरुष ही।
ट्रेन पटरी पर चल पड़ीं और धीरे धीरे रिमझिम रिमझिम बौछार … ट्रेन ने अपनी गति बढ़ा दी…चारो तरफ हरियाली ही हरियाली… यह मौसम सफर के दौरान मुझे अच्छा लगता है
~लेखिका तुलसी पिल्लई
१-०१-२०१९