*आश्वासन बीमार तंत्र की औषधि है*
नजरे भी नफ़रत करती है
बुद्बुदाहट और पैनी
इन्द्रियाँ और होती है नुकीली
वह अपनी संवेदनाओं के लिए लड़ता है
अपने बर्बाद हो चुके फ़सल पर
ईश्वर को कोसता है, सत्ता को गरियाता है
अधजले गोईठे की तरह
अपनी बदरंग हुई जिंदगी में
थोड़ा और राख पोतता है
तब वह पगड़ंडी पर नहीं
प्रश्नों के नोक पर चलता है
उतर में पहले फटकार मिलता है
फिर आधी संतावना
एक डेंग चलकर आधा खींचता हुआ
शक के भींगे उपले से उठता हुआ धुंआ
छल के चूल्हे से उठता है
मन में टहलती उम्मीद
कपटी चोट से लहूलुहान होता है
उसके सारे प्रश्न प्रभावहीन हो जाते हैं
आश्वासन बीमार तंत्र की औषधि है।
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