आशिक़ी अब न रास आने की
आशिक़ी अब न रास आने की
अब ज़रूरत है घर बसाने की
बोझ बचपन पे आ गया सारा
यह कोई उम्र थी कमाने की
जो किसी की खुशी से शाद नहीं
क्या ज़रूरत उसे मनाने की
काश इस ईद पर तो हो जाती
एक तातील कारखाने की
बज़्म में कोई पारसा न मिला
बात थी सिर्फ़ दिल चुराने की
जब यकीं उसको आ नहीं सकता
क्या ज़रूरत क़सम उठाने की
प्यार में मुफ़्त बिक गए अरशद
चाबियां फेक दीं ख़ज़ाने की