आशियाना
जहां पर नरम बिस्तर के गरम चादर पर,
शीत के वस्त्र पहने रहते ठिठुरकर ,
या पत्ते से बना मोटा बिछौना ही सही ,
यही तो है बस !आशियाना अपनी ।
प्रभात की पहली किरण जिस खिड़की से आए,
और कर्म के लिए हमें जगाए।
हजार जगहों में भी घूम घूम कर लौटते हैं जहां ,
वही है घर अपना,वही है अपना आशियाना ।
इसको सजाने संवारने के लिए कितने ही यत्न करते हैं,
छोटा हो या बड़ा अपने अनुसार यह निखरते हैं ,
पानी टपकती छत या फिर टूटी हुई दीवारें हो,
ऊंची भवन या बगीचे में फूल बहारे हो।
आशियाना सभी के है अपने-अपने,
जहां पर बैठे-बैठे देखते हैं सपने ।
जहां पर खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं ,
जिसके अंदर में हम पलते बढ़ते हैं ।
आंसू एवं उल्लास जहां समाते हैं ,
जिसके अंदर सुख-दुख के दिन बिताते हैं ।
आकाश में उन परिंदों को देखो जो उड़ रही है ,
पेड़ों के डाल या कोटर में घर बना रही है।
उन यायावरो को देखो जिनका नहीं है कोई ठिकाना,
लेकिन कहीं ना कहीं वे जरूर बनाएंगे आशियाना।
उत्तीर्णा धर