आशंकाएँ बढ़ रही हैं
निगाहें दिलों की भावनाएँ पढ़ रही हैं।
अनहोनियों की आशंकाएं बढ़ रही हैं।
अपराधियों के साथ हाकिमों की हमदर्दियाँ,
मासूमियत के सिर बलाएँ मढ़ रही हैं।
धड़ाम हो गयी हैं कीमतें जमीरों की,
मंदियाँ अट्टालिकाएँ चढ़ रही हैं।
फरेब की हकीकतें आम होने लगीं हैं,
हक़ीक़तें झूँठ की कथाएँ गढ़ रही हैं।
संजय नारायण