आलेख ::शिक्षा
शिक्षा :– एक मौलिक अधिकार
आलेख
—– मनोरमा जैन पाखी
शिक्षा एक मौलिक अधिकार है।भारत में सर्वप्रथम बालकृष्ण गोखले द्वारा -1910 में निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की माँग की गयी।1937में ग्रामीण भारत में शिक्षा के स्तर को देख महात्मा गाँधी काफी विचलित हुये और जाकिर हुसैन के साथ मिलकर उन्होंने ‘नई तालीम’ की अवधारणा प्रस्तुत की जिसके अंतर्गत बच्चों को कार्यकुशल बनाने के साथ शारीरिक विकास को भी स्थान दिया गया था।उन्होंने कहा था ,”बुद्धि की सच्ची शिक्षा हाथ,पैर,आँख,कान,नाक आदि शारीरिक अंगों के ठीक अभ्यास और शिक्षण से ही सँभव है।”जब तक मस्तिष्क और शरीर का विकास साथ-साथ न हो,उस परिमाण में आत्मा की जागृति न हो तब तक बुद्धि के एकांगी विकास से कोई विशेष लाभ नहीं।
लार्डमैकाले की शिक्षा नीति
1935 में बनी प्रांतीय सरकारों द्वारा शिक्षा प्रसार विभाग का गठन किया गया लेकिन 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ जाने के कारण उन प्रांतीय सरकारों का अस्तित्व ही समाप्त होने से योजना को पलीता लग गया। उच्च स्तर की शिक्षा पर सरकार का अधिकार था।इसका पूरा ढांचा लार्ड मैकाले की नीति पर टिका था जिसका एक मात्र उद्देश्य अँग्रेजी शासक वर्ग के लिए देशी सहायता तैयार करना मात्र था ।दुर्भाग्य से लार्ड मैकाले की नीति वाली उच्च शिक्षा अभी पूरी तरह से समाज ,देश के बीच पैठ बना चुकी है और देश में शिक्षा को लेकर दो वर्ग तैयार हो चुके हैं ।एक लार्ड मैकाले की अंग्रेजी सभ्यता वाली शिक्षा नीति दूसरी हिन्दी माध्यम की भारतीय संस्कृति वाली शिक्षा नीति।यद्यपि 1944 में शिक्षा संबंधी केंद्रीय सलाहकार समिति ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट किया था कि ;शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बच्चों को सामाजिक अनुभवों से गुजारना है न कि केवल औपचारिक हिदायतें देना।
शिक्षा आयोग की असफलता
1966 में स्वतंत्र भारत में प्रथम बार शिक्षा संबंधी कोठारी आयोग का गठन किया गया जिसने देश के सभी बच्चों के लिए समान शिक्षा नीति की वकालत की थी।कोठारी आयोग ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा था कि एक आधुनिक लोकतांत्रिक समाज की जरुरतों कोपूरा करने के लिए वर्तमान शिक्षा प्रणाली में आमूल चूल परिवर्तन लाये जाने की जरुरत है।शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त अराजकता,विषमता का आयोगने घोर विरोध किया था। दर असल कोठारी आयोग तेजी से पनप रही पब्लिक स्कूल संस्कृति पर लगाम चाहता था पर बदकिस्मती से हुआ उल्टा।आयोग की रिपोर्ट और सिफारिशों का काफी विरोध हुआ।तत्कालीन सरकार भी शिक्षा संबंधी जिम्मेदारी से मुक्त रहना चाहती थी परिणामतः देश में पब्लिक स्कूलों की बाढ़ आ गयी।और प्रतिभा के स्थान पर आर्थिक योग्यता प्रवेश का आधार बन गये और शिक्षा कुलीन वर्ग के लिए आरक्षित हो गयी।गाँव के किसान के बच्चे गाँव की उन प्राइमरी पाठशालाओं तक सीमित रह गये जिन्हें सरकार ने पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत अनमने भाव से खोला था।
सभ्यता के विकास के प्रारंभिक चरण में मानव और पशु में सिर्फ भाषा का ही अंतर था।इसी भाषिक सामर्थ्य के कारण मनुष्य शब्दों के पश्चात अक्षरों का विकास करने में सक्षम हुआ।और आज इसी के बूते मनुष्य उस अदृश्य शक्ति को चुनौती दे रहा है जिसे भगवान कहते हैं।
शिक्षा का बदलता स्वरूप
वैदिक काल में शिक्षा गुरुकुलों में दी जाती थी।शिक्षा शासन के नियंत्रण से पूर्ण तरह मुक्त होती थी शासन से आर्थिक सहायता इन्हें दान के रूप में मिलती थी जो पूर्णतया शर्तहीन होती थी।24वर्ष की आयु तक शिक्षार्थी को पुस्तकीय ज्ञान के साथ साथ व्यावहारिक ज्ञान भी दिया जाता था।बौद्ध काल में बौद्ध विहार ही शिक्षण का कार्य करते थे।इस काल में धार्मिक तथा व्यावहारिक शिक्षा की प्रमुखता थी।बाद के वर्षों में शिक्षा का स्वरूप बदलता गया। मुगलकाल में यह सिर्फ धनवानों के लिए आरक्षित थी।अंग्रेजों का शासन आते आते शिक्षा का स्वरूप पूरी तरह बदल गया।इसका उद्देश्य मात्र क्लर्क पैदा करना था जो निश्चित पगार पर अंग्रेजी हुकुमत के लिए बाबूगिरी या चपरासीगिरी कर सकें।
1986 में नवीन राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत देश में नवोदय विद्यालयों की स्थापना की गयी।यह एक ऐसे शिक्षण संस्थान की परिकल्पना थी जिसमें जाति,धर्म,वर्ग,समाज व लिंग आदि सभी भेदभावों से ऊपर उठकर सभी के लिए शिक्षा की अवधारणा को बल मिला।यह प्राचीन काल के गुरुकुलों का आधुनिकतम व पूर्णतः परिष्कृत स्वरूप था।जिसे मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय के अधीन नवोदय विद्यालय समिति इन विद्यालयों का संचालन करती है।
नवीन अवधारणा
भारत में बालशिक्षा के क्षेत्र में नवीन और परिष्कृत अवधारणाओं का जन्म 1992–93 में तब हुआ जब भारत ने संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार चार्टर पर हस्ताक्षर किए।प्राथमिक शिक्षा के महत्व पर यह भारत सरकार की स्वीकृति जैसा था।हस्ताक्षर कर्ता देश होने के नाते भारत को अब बाल शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता प्रदान करना आवश्यक हो गया।1993 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उन्नीकृष्णन बनाम आंध्रप्रदेश के मामले में दिया गया निर्णय भी इस दिशा में मील का पत्थर साबित हुआ।
निष्कर्ष
आज मानव सभ्यता विभिन्न क्षेत्रों में उन्नति के शिखर को छूने लगी है जिसका श्रेय निःसंदेह ग्राम शिक्षा को दिया जाना चाहिये।शिक्षा सभ्यता और प्रगति की जननी है ।आदिकाल के वस्त्रविहीन आखेटक और भोजन संग्रह वाले कबाइली समुदाय में रहने वाला मानव आज साइबर समुदाय का अहम् हिस्सा बन गया है जो कि शिक्षा का ही चमत्कार है।
सर्वांगीण विकास की आकांक्षा रखने वाला कोई भी राष्ट्र शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दिये बिना नहीं रह सकता।भूमंडलीकरण के दौर में शिक्षा और भी महत्वपूर्ण हो गयी है।सूचना प्रोद्योगिकी की अभूतपूर्व उपलब्धियों ने संपूर्ण विश्व को ग्लोबल विलेज का रूप दे दिया है। गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर जी के शब्दो में कहें तो ,”ज्ञान ही सत्य है और सत्य से बढ़कर संसार में कुछ नहीं है।हमें सत्य चाहिये केवल सुविधा,सम्मान के लिए नहीं,बल्कि मानव आत्मा को प्रच्छन्नता से मुक्ति के लिए।”
वस्तुतः हमारी शिक्षा संस्थानों का शिक्षा यंत्र यही होना चाहिए…
यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानः ततो न विजुगुप्तसे।।