आलीशान हवेलियाँ
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खंडहर बताते हैं आलीशान होगीं हवेलियाँ,
क्या हुआ भला होगा बुझती ही नहीं वो पहेलियाँ।
तीर तो अभी बाकी है चाहे नहीं दम रहा नहीं,
टूट कर हुए दरवाजे ख़ाक खाली दहेलियाँ।
रीत काल गुम सा तन मन से है हुआ कुछ न सके,
आज याद आती होंगी वो पुरानी सहेलियाँ।
थी हरे – भरे आंगन में भरती रही खूब झोलियाँ,
खूब जां लगाकर थी खुशियाँ बेतहाशा बिखेरियाँ।
रह गए यहाँ मनसीरत जैसे अकेले सड़े गले,
मिट गए निशां सारे हिस्से हैं बची ये निशानियाँ।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेडी राओ वाली (कैथल)