आलस्य का क्यों पीता जहर
समय बहुत बलवान है,
इसकी महत्ता, हम समझेंगे कब..
तन मन के लिए, यदि बिस्तर बड़ा,
तो आलस्यपन को, हम छोड़ेंगे कब..
सूरज उगा पूर्व ,पीला चाँद सा,
फिर नारंगी वो, नभ में बन गया..
दहकता प्रचंड,अब सर के ऊपर खड़ा,
तुम नजरें, मिला सकते हो क्या..
समय चक्र से है,भाग्योदय जुड़ा,
सूर्य हस्त रेखाएं कुछ भी नहीं..
शुभ रत्नों से ही यदि,बदल जाता ये भाग्य,
तो भरे बाजार में रत्न बिकता नहीं..
पूछ लो कुछ, उनकों भी तुम,
जिनके फूटे करम,नींदे आती नहीं..
फिरता है वो ,करम गठरी लिए,
जब सड़कें भी नजर आती नहीं..
आठों पहर मिलकर ,दिन और रात,
कहता है नित्य, सुनलो मेरी भी बात..
बीता अभी तीनों पहर,
नित्यकर्म से तू वंचित रहा,
बाक़ी पहर भी जाएगा,
अपकर्म तेरा संचित रहा..
रात्रि का चौथा पहर,
यही उषा अमृत काल है,
जगने का यह है ब्रह्म मुहूर्त,
यह काल का भी कपाल है..
सुनो अनहद सा नाद,
कर दो अब निद्रा का त्याग..
छेड़ो सुर जोगिया का राग,
तो यहीं काशी प्रयाग..
हौसला क्यों रुग्ण है..?
तरुण वरदान का अनुपम प्रहर..
किस्मत तेरा साढ़े तीन फेरे लगा,
सोया हुआ ,जो ढाता कहर..
उसको जगा, उसको जगा,
आलस्य का क्यों पीता जहर..
मौलिक और स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ३०/१२/२०२४ ,
पौष,कृष्ण पक्ष,अमावस्या ,सोमवार
विक्रम संवत २०८१
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