आलता महावर
रचना क्रमाँक 1–
“जीवन के रथ पर चढ़कर”
#विधा -कविता
मेरे जीवन रथ पर चढ़कर ,
प्रेम तंतु भी जल जाते हैं।
हुये सभी करुणा कोष रिक्त,
मधुकर ज्यों मधु लुटाते हैं।।
नीरव सी जीवन यात्रा में ,
अश्रु को जैसे मिलता विश्राम
निज मन दुर्बलता में खोकर ,
तन्हाई को मिलता आराम ।
छल-छल छलकते श्रम सीकर ,
परिरंभन में सुख पाते हैं।
मेरे जीवनरथ पर चढ़कर ,
प्रेमतंतु भी जल जाते हैं।।
गतिमान पथिक भी थक कर जब,
सुख स्वपनों में सो जाता है ।
विरह-वेदना के दुर्गम पथ ,
प्रेम का आगोश पाता है ।
थकित पाँव डगमग से करते ,
चलते चलते रुक जाते हैं ।
मेरे जीवन रथ पर चढ़कर ,
प्रेम तंतु भी जल जाते हैं।।
लौटा दी है धरोहर सभी ,
निर्बल मन में अब ठौर नहीं ।
सुप्तावेग बजे वीणा भी ,
आता आम्र पर बौर नहीं ।
काँटों मध्य सुमन गुंथ कर ,
जैसे सुरभि लुटा जाते हैं ।
मेरे जीवनरथ पर चढ़कर ,
प्रेमतंतु भी जल जाते हैं।।
★★<>★★
✍©मनोरमा जैन पाखी
भिंड ,मध्य प्रदेश
पूर्णतः मौलिक स्वरचित और अप्रकाशित।