आया था चाँद पानी पर
कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय
किसी ने उपमा दी इसे
महबूबा के चेहरे की,
किसी ने कहा ये रात का साथी है
कभी बादल मे छिपकर
लुका छिपी करता तो ,
मासूम सा बनकर सामने आ जाता कभी
सदियों से बस वही है पर फिर भी
हर दिन कुछ बदल जाता है
अमावस्या से पूर्णिमा तक जीता है एक जिंदगी
खामोश है, बेजुबान रहा हमेशा
पर गवाही दे रहा है
प्रेमी और प्रेमिका के मिलन की उस रात की
कौसल्या से बालक राम ने भी
जिद की थी चाँद की
झट फलक से उतर आया था चाँद पानी पर ||