“आम भारतीय जीवन संस्कृति”
जीवन की अकेली ताकत है मन,
जो इच्छाओं का परम पिता रहता।
संसारिक,अंतर्विधा,ब्रह्मभाव,रहते,
इच्छा की विधा हेतु उक्त में अपनाते
”
आंतरिक विकार भावजबमानव में आते
उक्त विधाएं अपनी संस्कृति मेंआ जाती
भोग अभिलाषा जो तन मन में निर्लिप्त,
. उक्त संतुष्टि हेतु विविध भाव क्रियाकरते
धन दौलत ज्ञान विधा समाप्तकर,
भोग अभिलाषा हेतु सब कुछ करते।
बंधित संस्कृति छोंड़ कहां पहुंचते,
जिसको कभी सोंचा नहीं विधा में करते
घर परिवार महल कुटी कीसंस्कृति देखी
अदा नजाकत जिसजगह हमपहुंच जाते
उक्त संस्कृति अवचेतन में जाकर,
इच्छित आकर्षण हर पल है बुलाती।
बहुत सम्ब्रद्धशाली तन मन के धनी,
मौलिक योग बिन योगिक विधा जपते।
कष्ट दुख दर्द किसी रुप आते,
विधा समाप्त हेतु भोगिक क्रिया करते।
हानि लाभ कुछ सयझ नहीं पाते,
भोगिक विधा हेतु भाव में डूब जाते।
जीवन संस्कृति हेतु यह परम ब्यापक,
सामाजिक दुख कष्ट गरीबी होती सामिल
ज्ञान ध्यान जीवन की उत्क्रष्टता,
. ब्यापक ब्यवस्था हेतु घरसमाजलगजाता
रूढ़ता द्रष्टता भावों से दूर हुई,
तनमनकी विधा हेतु काफी संस्कृति कीहै
ब्यापक स्मार्ट जो शहरों में अधिक हैं,
वैसी संस्कृति से गांव गलियां चलती हैं।
जितना आवर्धन धन संस्कृति का है,
गांव संस्कृति खेत जंगल में सजा देते।
धन दौलत पद निष्ठा में हैं प्रबल,
तन मन कीआवश्यकता हेतु विधा से पाते
काम आवश्यकता हेतु शिष्ट बनकर जाते
काम की लालसा हेतु समय जगह बताते
तन मन की तुष्टी हेतु योगाप्सना करते,
उससे खुशी पाकर ज्ञान विशिष्टकर जीते
आम सामाजिक विधा यही है,
.धन दौलत शिष्टता छोंड़ बनी क्रती मेंजीते