“आम जीवन की स्वाभाविक संस्कृति”
संसारिक विधा में जो होता लाभ हानि,
आम जीवन संस्करण में चलता रहता।
जीवन के दुख-सुख भावों में आकर,
धन-दौलत नारी भोग विधि समा जाता।
अब तक जितना जीवन चला हैं,
हानि लाभ प्रतिभा प्रतिष्ठा को पाया।
अब तो कुछ बचा नहीं तेरे लिए,
जैसे तू मिला था वैसे ही जीवन चल।
ब्यवस्थित विधा संग नारी संसर्गन,
प्रकृति उन्नयन हेतु विधिता भाव करते।
इच्छा संतुष्टि हेतु जो विधा करते,
शारीरिक शक्ति का पलायन रहे करते।
नशे रुप जब विधा में आते,
आवश्यक संतुष्टि हेतु क्या क्या करते।
बिना ज्ञान के नीति अनीति करके,
भोग चाह हेतु क्या क्या रहे करते।
ब्यापक विकार जो निश्चित विधा है,
आम संस्कृति छोड़ इसके भाव में घुसते
नर नारी की बात नहीं है,
भावना कीचाहत किसकोकहां पहुंचाती
सामाजिक नकारात्मक सकारात्मकजैसेविचार
आत्मशक्ति विधिता को वैसे बांध देती।
नशा किसी का जो तन मन में रहता,
ज्ञान विवेक बिन संस्कृति के करता रहता
भोग संस्कारिता वह कितनी रही ब्यापक
नकारात्मकसकारात्मककेअधिकशक्तिसेजता
सामाजिक संस्कृति कितना साथ देती,
वास्तविकता कोछोंड़भोगइच्छाहेतु जुड़ते
धन दौलत अति चाह विधा की,
दिखा समझाकर ले देकर अपना लेते।
अपनी संस्कृति का ध्यान नहीं रखते,
प्रतिभा और चाह हेतु अद्भुत क्रिया करते
भोग संस्कृति इतनी प्रबल बनती,
इज्ज़त मर्यादा छोंड़ अपनी विधामें रंभते
धन दौलत के अति बलिष्ठ लोग,
सामाजिकता छोंड़ इच्छा प्रबलकर आते
तुष्टि नशा ब्यापक जो बसता उसमें,
कमी विधा होने पर बाजारी नशे ले लेते
कैसी संस्कृति रही आम जीवन की,
न्यायिता किनारे रख चाह में नींद लेते।
शादी ब्याह रही मौलिक संस्कृति,
संस्कार संसर्गकर अद्भुत कृति बना देते
धन दौलत पिता लड़के को देकर,
लड़के कीसंस्कृतिहेतुकलाशिक्षा संगदेते
मौलिक निश्चिंतता की संस्कृति बनी नहीं
सब कुछ पाने बाद लड़की दोषीबता देते
खुद की ऐच्छिकता हेतुअन्यचीज चाहते
अपनी ध्रष्टता कारण उसे बदनामकर देते
ऐच्छिक विधाएं वह सबकी अलग रहती,
भोग संसर्ग जो निश्चित मौलिक विधा है।
कारण औचित्य जो ब्यापक और निश्चित है
विविधभोगक्रत्यतनमनवैचारिकतानष्टकरती