“आभास ” हिन्दी ग़ज़ल
दूर होकर भी है लगता, हरेक पल वो पास है,
सत्य का पर्याय भी वो, सुखद इक आभास है।
स्वप्न मेँ दो पल ठहरना भी, उसे भाता है कब,
देख लूँ जी भर कभी, इतनी सी बस अरदास है।
रूप का आगार है वो, रँग कनक से साफ है,
जायसी की पद्मिनी, राधा का उसमेँ वास है।
चाँदनी फीकी लगे, उससे ही मन मेँ उजास हैl
सामने सरिता है, फिर भी उर मेँ, मेरे प्यास है।
मिल ही जाएगी कभी, “आशा” यही, विश्वास है,
उससे ही अब ख़ुशी मेरी, उससे ही परिहास है..!
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