आब घुरिक कखनो नहि आयब(कविता)
आब घुरिक कखनो नहि आयब
टूटि खसल जिनगीक असरा
हिय मे सूल उठे अनेक सारा
वेदना गोदसँ मा आँचर मे
कए दिनसँ कानी रहल छी
जानै कतए धरि जाउ
आब जिनगीक विराम दिअ प्रभु
आब घुरिक कखनो नहि आयब
काशी विश्वम्भरा लागत विरान
जानै कतए अपने चलि गेलौ
जगेस्वर अपने नव जयदेव कें वचन देलौ
सदा करब वास अतय
पुण्य प्रबल नहि कि हमर
कि हमर नोरसँ तनमन अपनेक धूलल नहि
कखनसँ रुठल छी हमरासँ,कि चलू
आब घुरिक कखनो नहि आयब
खुसी आश नहि हमरा
पथ मे न पुष्प बिछाबू
आब जिनगी इच्छा तोलू तराजूसँ किया
कि कहूँ जिनगी अनमोल बड़ी
झरनाक कलकल,पुष्पक महक
हृदय मे एक सूल बढाबै छै
लगे जेना मुगल अत्याचार करि रहल हमरा पर
जानै हम बहुत अभागा छी
गंगा मा नहि हमर कारण ऐथिन
कि पुत्र नहि हम अपनेक,कि चलू
आब घुरिक कखनो नहि आयब
मौलिक एवं स्वरचित
© श्रीहर्ष आचार्य