आबादी
पल-पल बढ़ रही,
सबको ये डंस रही,
सुरसा के मुंह जैसी,
रोज फैल जाती है।
धरती आकार वही,
सब घरबार वही,
आबादी के बढ़ने से,
जमीं घट जाती है।
जंगल को काट कर,
तालाबों को पाट कर,
आबादी बसाने नई
बस्ती बस जाती है।
हम दो हमारे दो का,
नारा लगा वर्षो से,
नसबंदी करने से
सत्ता फँस जाती है।
पंकज प्रियम