“आबादी”
“आबादी”
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(विश्व जनसंख्यां दिवस पर विशेष)
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पूरी आबादी को, मेरा प्रणाम;
बढ़ती रहे जो सदा ,’जनसंख्या’,
ऐसे ही चढ़ती जाए, तब दाम;
कारनामा हो किसी और का,
पर होती रहे, सरकार बदनाम।
सदा मचाए सब, खूब हल्ला;
खुद गुड़ खाए ,छोड़ गुलगुल्ला,
खुद तो कोई, घर चला ना पाए;
फिर भी, बच्चें पर बच्चे लाए;
अब सरकार को ही दोषी बताए।
कोई नही किसी से है , यहां कम;
जनसंख्या बन रही, अब देशी बम,
नीति हो गई , अब आबादी की;
कुछ तुम लूटो, और कुछ लूटे हम,
कह दो, सरकार में नही कोई दम।
एक नही, दो-तीन जब हो शादी,
फिर क्यों न बढ़े, फालतू आबादी;
लूट खायेंगे सब, इस भारत देश को;
मानेंगे तब, जब हो जाए पूरी बर्बादी,
लेकिन दोषी है, सरकार ही ज्यादी।
देश की चारो ओर, इतनी जमीं है;
कोई मानता कहां, किसमें कमी है;
भले बेतहासा बढ़ते रहे, जनसंख्या;
किसी के आंख में कहां कोई नमी है,
कहे सब यही, सरकार ही निकम्मी है।
बच्चे पैदा हो सदा, आठ, चार या दो;
मगर,सबको ही सरकारी नौकरी दे दो;
हम देंगें नही कभी कुछ, इस देश को;
चूसेंगे सदा, अपने-अपने परदेश को;
मगर कोसना है, सरकारी परिवेश को।
अगर बढ़ती रहे आबादी, इसी प्रकार;
मंहगाई क्या, देश ही हो जायेगा बेकार,
होगी, जमी पर पैर रखने की जगह नहीं;
फिर भी, सब ढूंढते रहेंगे सदा रोजगार;
अब इस बारे में जल्द ही सोचे सरकार।।
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स्वरचित सह मौलिक
…. ✍️पंकज “कर्ण”
…………..कटिहार।