आप में यूं झांकिए
छोड़िए अब क्या लिखें हम स्वयं के दर्द पर
सूर्य से भी प्राप्त होती है मुझे उस सर्द पर।
अब तो दूरी में भलाई है कलम से राखिए।
छोड़िए भी आप मत अब आप में यूं झांकिए।
देखिए नित दिन मुझे जो जगाते ख़्वाब हैं
आपके नजरों में मेरे अश्क भी तो आब हैं।
कौन कहता है यहां या कौन समझा सांच को
आंख के मोती बुझाते हैं तबे तल आंच को।
आइए अब आप भी निज रोटियों को सेंकने
छीनकर रोटी गरीबों से गटर में फेंकने।
खेल ये चलता रहा है इश्क़ के आइन में
एक जाए सौ खड़े हैं प्रेयसी के लाइन में।
कौन किसको रोक सकता है विकट जंजाल में
कातिलों को भी बचाए है ये ताकत माल में।
ताज के शौकीन ही तो मुंतजिर हैं तख्त के
कौन आखिर है कबूला सच नवाबी सख़्त के
इस तरह से ही सजाई जा रही है युग नई
सत्य जो हमने कहा है आप भी अब आंकिए।
अब तो दूरी में भलाई है कलम से राखिए।
छोड़िए भी आप मत अब आप में यूं झांकिए।
देखिए कैसे सिहरती है जगी दीवानगी।
देखिए कैसे पनपती है नई आवारगी ।
दो पलों का साथ है फिर जो होगा जानिए
आप हैं नाजुक हृदय मुझको पत्थर मानिए।
मैं किसी स्पर्श से मादक नहीं होता कभी
देखकर अग्नि का पथ हां मैं नहीं रोता कभी।
सागरों के मध्य नौका में किया सुराग हूं
मैं नहीं सूरज मगर हां हां बुझा चिराग़ हूं।
आज बुझते देखकर मायूस तुम होना नहीं।
टूटते ख्वाबों के माला को तो संजोना नहीं।
खेल है दुनियां की प्यारी खेलकर ही जाइए
उत्कर्ष के पाथिक मुहब्बत झेलकर ही जाइए।
जो भी आए रास यारा आप वो करिए मगर
दिल हुआ पत्थर मेरा उसमें न उल्फत ताकिए।
अब तो दूरी में भलाई है कलम से राखिए।
छोड़िए भी आप मत अब आप में यूं झांकिए।
©® कवि दीपक झा “रुद्रा”
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