ईस्वर दर्शन
” ईस्वर मनुष्य की सहनशीलता में वसता है ,कट्टरता में नही ” – यही कारण है कि वह उन लोगो पर तुरन्त प्रहार नही करता जो उसको नही मानते या उसको गाली देते। इसी वजह से ईस्वर को सर्वव्यपी कहते है अर्थात वह सजीव में भी है और निर्जीव में भी एक समान रूप से ।
” कोई भी शब्द या मन्त्र इतना शक्तिशाली नही कि ईस्वर को साक्षात कर दे , सिवाय मानवीय प्रेम के ” – क्योकि ईस्वर सर्वशक्तिमान है उसे शब्दों और मंत्रों से बंदी नही बनाया जा सकता । ईस्वर का वास हर प्राणी में है प्राणी सेवा करके जरूर ईस्वरीय प्रेम साक्षात हुआ जा सकता है ।
” ईस्वर को जरूरत नही कि वह किसी मनुष्य को अपना दूत बनाये क्योकि वह सभी में व्याप्त है ” – अहम ब्रह्मास्मि सायद यही सावित करता है । जिस प्रकार एक पिता को जरूरत नही कि उसकी सन्तान उसका प्रचार करें क्योकि सन्तान ही स्वयं उसका प्रचार है इसी कारण ईस्वर या परमपिता को जरूरत नही कि वह मनुष्य को अपना दूत बनाये क्योकि वह सभी के अंदर ही रहता है ।
” ईस्वर को किसी भी प्रकार के इबादतखाने की जरूरत नही ना ही किसी भी प्रकार के प्रार्थना घर की क्योकि ये ईस्वर की शक्ति और महानता को इनके देहरी तक ही सिमित कर देते है। जैसे मनुष्य अपने प्रार्थना घर में गलत नही करता किंतु प्रार्थना घर से वाहर निकलते ही गलत करने से झिझकता नही अर्थात वह प्रार्थना घर से वाहर ईस्वर की उपस्थित को नही मानता ।”
” ईस्वर वहाँ भी उपस्थित है जहाँ पर मनुष्य का वास नही है ” जैसे अंतरिक्ष , इसलिए ईस्वर को आपकी जरूरत नही ना ही आपकी प्रार्थना की और ना ही आपके गुस्से की । वह अनंत है शांत है असीमित है अंतरिक्ष से भी ज्यादा अतुलनीय ।
” धर्मो ने ईस्वर को समझना मुश्किल कर दिया है “- यह सत्य है क्योंकि हर धर्म अपना ईस्वर अलग मानता है और उसको अपने कर्मकांडो से जोड़ देता है जिसका अर्थ हुआ कि जियने धर्म उतने ईस्वर , और कोई भी कर्मकांड गलत हुआ तो ईस्वर नाराज ईस्वर से दूरी यहाँ तक कि ईस्वर को भाषा की सीमा में बाँध दिया है । जबकि सभी धर्म ये भी कहते है कि ईस्वर सर्वव्यापी है और सभी ये भी कहते है ।
” आस्तिक – नास्तिक कोई विचार नही बल्कि गैंग बनाने के तरीके है ” – क्योंकि जब किसी ने जन्म लिया है तो जाहिर सी बात है उसमें आत्मा का निवास है और उसका शरीर उसी आत्मा में विस्वास करता है और वह मनुष्य जिन्दा या मरने को अच्छे से समझता है अर्थात वह ईस्वर की असाधारण प्रकृति को समझता है। इसलिए कहा ही नही जा सकता कि वह ईस्वर की महानता से अनभिज्ञ है । इसलिए किसी को आस्तिक कहना या किसी को नास्तिक कहना केबल जबर्दस्ती अपने गैंग में शामिल कर दुसरो पर प्रहार करने जैसा है ।
” विचारशील मनुष्य के लिए धर्म की जरूरत नही क्योकि वह प्रकृति की महानता को उसकी असाधारण शक्ति को आसानी से समझ सकता है धर्म की जरूरत उनको है जो ईस्वर को मनुष्य समझते है और उसे केबल मनुष्य से ज्यादा शक्तिशाली मानते हैं अर्थात प्रकृति की शक्ति से कम आंकते है ।
” धार्मिक पुस्तकें मनुष्य को कट्टर नही बल्कि लचीला बनाने की सलाह देती है क्योकि जब धर्म के द्वारा एक पत्थर में या मूर्ति में या दीवाल में जान डालकर उसे ईस्वर बनाया जा सकता है अर्थात चट्टान को भी सजीव कर दिया जाता है । यही लचीलापन मनुष्य में भी चाहा जाता जाता है ।
” धर्म आध्यत्म विचार से ज्यादा तो राजनितिक विचार है सत्ता स्थापित करने के लिए और सत्ता की सुद्रणता के लिए ” इसलिए सभी धर्म सत्ता के साथ स्थापित हुए है और सत्ता के साथ ही समाप्त हुए है । जबकि अध्यात्म तो प्रकृति के हर कण में मौजूद है और सभी स्थानों पर समान जिस आधार पर धार्मिक भेदभाव आवश्यक ही नही है ।
” मनुष्य का जन्म मनुष्यता के लिए हुआ है ना की ईस्वर की खोज के लिए क्योकि ईस्वर तो सजीव निर्जीव अच्छाई बुराई सभी में समान रूप से वसता है ।