आधी अधूरी
ढल गई अश्कों में ये जीस्त , सबकी ज़िंदगी खुश़नुमा बनाते बनाते ,
चेहरे पर मुस्कुराहटें लिए जज़्ब किए हर दर्द छुपाते छुपाते ,
कुछ था फर्ज़ का तक़ाजा , कुछ अहदे वफ़ा की हक़ीक़त,
कुछ था रुस्वा -ए-ख़ल्क़ का ख़ौफ़ , कुछ निबाह की ज़रूरत ,
इसी कश्मकश में डूबी ये ज़िंदगी सारी गुज़ार दी,
भरपूर कभी ना जी सका फ़क़त रही आधी अधूरी ,