आदमी_आसमान टुकड़ों में बँटा
आसमान टुकड़ों में बँटा
और आदमी‚
आसमान हो गया।
कुछ सिक्के अँगूठे पर उछालकर
बेचना इसे
आसान हो गया।
आदमियत
ज्यों जानवरों ने चर लिए।
क्योंकि
‘ऋणात्मक पुरूष’
आदमी में बहुत ज्यादा
प्राणवन हो गया।
कौन टूटा नहीं
प्रलोभनों के समक्ष
नीति कि नैतिकता‚श्रद्धा कि आस्था
शहर का पंचतत्व भी
और गाँव अनजान हो गया।
गणित शहरी हुआ जितना
आदमी के अंकों का मूल्य घटा।
और शुन्य उसका मान हो गया।
शब्द–शास्त्र बिकाऊ हो गया
क्योंकि
सारा प्रबुद्ध वर्ग
इस बस्ती का
सस्ते में इन्सान हो गया।
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