आदमी…।
आदमी….।।
तील तील कर तो यूँ ही मर रहा था “आदमी”..।
जो थोड़ी जान बचीं थी उसके ख्वाहिशों ने लिया..।।
रिश्तों की अहमियत कहाँ समझ सका आदमी.।
अब तो रिश्तों की जगह मशीनों ने ले लिया…।।
रिश्तों के ईंट से जो घर बनाया था आदमी..।
टूटते ही उसकी जगह खंडहरों ने ले लिया.।।
उम्मीदें आदमी की अक्सर इसलिए दम तोडती है.।
क्योंकि उम्मीदों की जगह अब सपनों ने ले लिया.।।
यहाँ आदमी ही आदमी को मारता है देखो ..।
निंद खुद खोता है कहता है चैन अपनो ने ले लिया..।
जिंदगी के उलझनों को कहाँ समझ पाया “सुदामा”
जब भी जबाब ढूंडा,जगह नये सवालों ने ले लिया.।।
विनोद सिन्हा-“सुदामा”