आदमी———- बहुतेरे उधेड़बुनों का लम्बा
आदमी
बहुतेरे उधेड़बुनों का लम्बा इतिहास है आदमी।
और जिन्दगी से उठता हुआ विश्वास है आदमी।
मुट्ठी भर राख के सिवा शायद कुछ नहीं और है।
हर चौराहे पर एकाकी खड़ा हताश है आदमी।
शवदाहों में दहन के लिए सजाता रहा है तन।
सच यह है कि मन में सूखा पलाश है आदमी।
टूटेगा ही गणित का भ्रम और भ्रम का गणित।
जिन्दगी से जिन्दगी तक केवल तलाश है आदमी।
भीड़नुमा सपनों को बुनते हुए जीता, जागता है।
कपूर सा उड़ना है,व्यर्थता भरा नि:श्वास है आदमी।
ताजिन्दगी सय्याद है,नाशादहै,प्यास है हर आदमी।
दरअसल,पूरी जिन्दगी झेलता हुआ संत्रास है आदमी।
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