आदमी का शहर रहने दो इसे ————
आदमी का शहर रहने दो इसे
न बनाओ मंदिरों का शहर।
दु:ख,दर्द,व्यथा बेबाक कहने दो यहाँ
न बनाओ प्रार्थनाओं का नगर।
अट्टालिकाओं से सजे पथों पर फुटपाथ भी रहने दो
न बनाओ आंसुओं से भरे जाने वाले गह्वर।
शांति और सुकून मिलने सा कुछ रहने दो
घुड़दौड़ के मैदान सा न बनाओ गुजर-बसर।
आदमियत को प्रसन्न वदन रहने दो
लगाओ न इसे धर्म-मजहब की नजर।
महलों के किनारे घोसलों को भी उगने दो
उन्हें भी बिताने होते हैं दु:खों के पहर।
हर श्वेद को अधिकार है पुरस्कार पाने का
सजा रहने दो उन धावकों के डगर।
यह शहर है इन्सानों का सुंदरतम घर
ना,ना, घोलो ना इसमें स्वारथ का जहर।
तिरस्कृत न करो कुछ, ईश्वर होता है क्रूर
नि:शब्द आक्रमण करने में है मशहूर।
ईश्वरीय सत्ता को टहलने दो नि:शंक।
युद्ध रोकने ग्रन्थों से निकलता है जरूर।
शहर के हिस्से हैं जहां बिना जिये
होता है निधन।
और वे भी जहां बिना खुशियाँ पाये
जीवित स्पंदन।
शहर वहाँ भी है जहां छिपाने मुंह
शांति भागता फिरता है ।
शहर में गाँव बिखरे पड़े होते हैं,
मजबूरियों क्योंकि घेर लेते हैं।
———————————————
————-अरुण कुमार प्रसाद 5/8/21