आदमी और गधा
कल मैंने एक गधे को देखा
उसके आगे फैली हुई हरी हरी घास को देखा
गधा घास चर रहा था
और मैं
अपनी नई गढ़ी कविता का रसास्वादन कर रहा था
तभी हुआ रंग में भंग
आये पण्डित लम्बोदरानन्द
आते ही उन्होंने
बड़े प्यार से
मेरी पीठ को थपथपाया
मुझे अपनी कविता की नींद से जगाया
बोले, बेटा ! यह क्या कर रहा है ?
गधे से डर रहा है?
मैंने कहा,
पण्डित जी ! मैं डर नहीं रहा हूँ
अरे, आदमी नहीं बन सका
इसलिए गधा बनने का प्रयास कर रहा हूँ
सुनकर पण्डित जी गुस्से में डोले
बिगड़े, तमतमाये फिर हौले से बोले,
अरे मूर्ख ! भगवान से डर
उनका नियम उलट कर गधा बनने का प्रयास मत कर
तू हिन्दू है, हिन्दू के लक्षण देख
मुझे देख और मेरी शिष्य मण्डली में आ जा
सारे हिंदुओं के दिलों में समा जा
मैंने पण्डित जी को समझाने का प्रयत्न किया
दुनिया दिखाने का यत्न किया
तब तक मौलवी साहब आये
अल्ला हू अकबर का नारा लगाये
बोले, तू हिन्दू नहीं रहना चाहता तो मुसलमान बन जा
आ, इस्लामियत की पहचान बन जा
अरे नादान ! गधा बनना चाहता है ?
इस समाज से अलग होना चाहता है ?
मैंने कहा,
ये समाज, समाज नहीं कलंक है
यूँ समझिये कि जहरीले बिच्छू का डंक है
मुल्ला जी बोले,
क्या खुलकर नहीं कह सकते ?
मैं बोला ,
आप दोनों मेरी बात नहीं समझ सकते
क्योंकि,
आपकी आँखों पर सम्प्रदायवाद का पर्दा पड़ा हुआ है
नफरत का गर्दा चढ़ा हुआ है
जिस दिन आप गधे को समझ जायेंगे
उसी दिन हैवान से इंसान बन जायेंगे
अरे!
गधा हिन्दू नहीं होता, मुसलमान नहीं होता
उसका कोई भगवान नहीं होता, पैग़म्बरे ईमान नहीं होता
वह तो गधा है
इसलिए सबसे सधा है
इसी विशेषता को परखते हुए
दुनिया को समझते हुए
जाति और मज़हबवाद से डर रहा हूँ
आदमी तो नहीं बन सका
पर, गधा बनने का प्रयास कर रहा हूँ ।
✍️ शैलेन्द्र ‘असीम’