आदमी आदमी से डरने लगा है
आदमी आदमी से डरने लगा है
हर घड़ी आहें बस भरने लगा है
दुविधा पल रही सबके दिलों में
मरने की ख्वाहिश करने लगा है
आदमी आदमी से…………..
पहले जैसी बात नहीं अब
पहले से हालात नहीं अब
हर कोई दिल से उतरने लगा है
आदमी आदमी से…………..
जीवन से अब मोह कहाँ है
मन उद्विग्न जैसे हो रहा है
पल पल आदमी मरने लगा है
आदमी आदमी से…. ……….
अजब हो गई दूनियादारी
रिश्ते बन गए अब लाचारी
शक अपनों पर ही करने लगा है
आदमी आदमी से…………..
इसने मारा या उसने मारा
कहाँ रहा देखो भाई चारा
“विनोद”दर्दे दिल उभरने लगा है
आदमी आदमी से…………….
………………….(विडम्बना)
स्वरचित:- विनोद चौहान