आदमी आजकल आदमी ना रहल
गजल
आदमी आजकल आदमी ना रहल।
बैर टकराव में कुछ कमी ना रहल।
छोडि दिहलू तू जहिया से दिल तोड़ि के,
जिंदगी में कहीं रोशनी ना रहल।
आज फैशन सजी भा रहल पश्चिमी,
जुल्फ़ जानम के अब रेशमी ना रहल।
तन बदन उम्र रौनक हेराइल सजी,
चीज कुछऊ इहाँ दायमी ना रहल।
मान-सम्मान से नून रोटी चली,
कर पसारल कबो लाजमी ना रहल।
हमरी देखे के बदलल बा अंदाज ऊ,
आ कि अब होंठवे शबनमी ना रहल।
काठ काहें करेजा बनवले हवऽ,
‘सूर्य’ अँखिया में तहरी नमी ना रहल।
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य
तुर्कपट्टी, देवरिया, (उ.प्र.)
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