*आदत*
ऑथर – डॉ अरुण कुमार शास्त्री
विषय – आदत
शीर्षक – जान जाये पर आदत न जाये
नशे की आदत ने कब किसको छोड़ा है ?
ये तो बिना लगाम का मदमस्त घोड़ा है ।
बहना ने समझाया भाई ने समझाया रे ।
माता-पिता ने जी भर खूब मार लगाया रे ।
हम भी ठहरे पक्के नशेड़ी, बाज कहाँ आने वाले थे ?
झोला उठा के घर से निकले, कहाँ मानने वाले थे ?
पाई – पाई चुक गई भाई, जेब पे पड़ गया ताला रे ।
नशे की आदत ने मेरा तो निकाला दिवाला रे ।
आदत वो आदत भी कैसी आदत, जो छूट जाये आसानी से ।
घर बिकवा दे काम छुड़ा दे , दौलत जाए पानी में ।
इसके चलते दोस्त भी छूटे कोई रहा न रिश्ता नाता ।
भिक्षुक जैसा रूप हुआ अब गुरुद्वारे हूँ रोटी खाता ।
एक दिन ऐसा प्रसंग हुआ खुशकिस्मती से ।
मुझको अचानक मिल गई सखी पुरानी राह में ।
देख के मेरी हालत पहले तो वो भी पहचान न पाई ।
जब पहचाना तो वो भी एक दम बन गई काली माई ।
फिर न जाने कैसे उसका कोमल हृदय पसीजा ?
उसने मेरी ली कक्षा फिर, घर ले जा कर की दवाई ।
कान पकड़ के मुझको उसने उठक बैठक खूब कराई ।
देवी बन कर उसने मेरे जीवन का उद्धार किया,
फिर न पिऊँगा ऐसी उसने कसम दिलाई ।
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