आत्म मंथन
ना हूँ मैं तेरी तरफ,
ना उसकी तरफ ।
बस नज़रें ढूंढ रही,
कुछ नया हर तरफ ।
अजीब सी देखी छटपटाहट मैंने,
उस पत्रकार के चेहरे ।
कि कैसे वो चले,
अपने शब्दो के मोहरे ।
कुछ नया,
कुछ मज़ेदार ।
जो मचा दे,
हर तरफ हाहाकार ।
उनके मानस की,
हैं एक खूबी ।
अलग अलग चीजो को
जोड़ दे वो बखूबी ।
अगर समाज में हो फ़ैली कोई बीमारी,
और अपच से किसी का मन मचले ।
आपस में मिला कर खबरों को,
वो आम जनता के दिलो दिमाग से खेले ।
समस्या के समाधान,
को छोड़ वो सब करते हैं ।
अपनी कमाई को,
वो भी तरसते हैं ।
पर अब हम भी कोई मुर्ख नहीं,
सब कुछ हैं समझते ।
हकीकत को,
ज़मीन पर रखकर परखते ।
जानते हैं हम कि
दर्द भी हैं और दवा भी ।
असर होने के लिए वो मांगे,
थोड़ा समय भी ।
हैं कुछ मुश्किलें,
पर इतनी नहीं कि हमें तोड़ पाए ।
आखिर मुश्किलें भी तो बनी हैं,
ताकि कोई तो तोड़ जाये ।
थोड़ा तुम चलो,
थोड़ा हम चले ।
समझाकर सब को,
नयी राहों पर ले चले ।
समय चाहे,
नया हो या पुराना ।
हम चाहे,
निष्पक्षता के संग साथ निभाना ।
ना हैं ये सही समय अनबन का,
ये तो समय हैं,
चिंतन का ,
मनन का
और आत्म मंथन का ।
महेश कुमावत