आत्मिक झरना
उस उनींदी नींद के बस,
मोह की दीवार पर क्यों,
क्षणिक, व्याकुल संकुलों में,
चेतना की शुद्ध मूरत,
है समेटे अखिलता को,
देखता शुभ चाँदनी,
क्या सोचता है नर धनी ?।।1।।
नित्यता की शुभ्र अग्नि,
ध्यान में क्यों प्रज्ज्वलित हो ?
सेकते, जब तप्त तट पर,
बालुका के क्षुद्र कण क्यों ?
अमिट श्रद्धा को परखकर,
छेड़ता लय रागिनी,
क्या सोचता है नर धनी ?।।2।।
भीति का जो तिक्त झरना,
बह रहा है मन्द गति से,
शान्त होकर करवटें ले,
तप्त सूखे ओष्ठ पर भी,
कह रहा आधी कहानी,
जल उठी क्यों दामिनी,
क्या सोचता है नर धनी ?।।3।।
क्लेश के जो बिन्दु हैं,
छँट रहे हैं अपने ढंग से,
है अगोचर ईश जैसा,
ज्ञान का है किला दुर्गम,
बह रहीं हैं प्रेम नदियाँ,
फिर बची बस चाँदनी,
क्या सोचता है नर धनी ?।।4।।
संकुल=भीड़भाड़, चहल पहल का स्थान,
तिक्त=कडुआ
***अभिषेक पाराशर***