आत्मा, भाग्य एवं दुर्भाग्य, सब फालतू की बकबास
आत्मा केवल एक विचार है पर ऐसा कुछ है नहीं क्योंकि किसी भी शरीर से आत्मा केवल तभी निकलती है जब पहले शरीर नष्ट होता है। जब शरीर ही नष्ट हो गया तो अब आत्मा का विचार अमान्य जैसा लगता है क्योंकि कभी ऐसा नहीं होता कि किसी स्वस्थ शरीर से आत्मा निकल गई हो, यह जानकर कि शरीर की अपनी आयु हो गई है। जब विज्ञान तकिनीकी का प्रयोग कर गर्दन का कुशल प्रत्यारोपण करना सीख जाएगा तब देखना आत्मा का यह विचार अप्रासंगिक हो जाएगा क्योंकि सक्षम इंसान अपनी मृत्यु से पहले ही अपना शरीर परिवर्तित कर लिया करेगा, जैसे आजकल किडनी, लिवर इत्यादि प्रत्यारोपित करा लिए जाते हैं। इस तरह कराने से देखना आत्मा भी स्वतः ही प्रत्यारोपित हो जाएगा। क्योंकि आत्मा जैसा कुछ है ही नहीं यह तो जबरदस्ती इंसान को भ्रमित करने वाला विचार है।
इसी प्रकार ना ही पुनर्जन्म जैसा कोई सफल सिद्धांत है क्योंकि किसी को नहीं पता कि पुनर्जन्म होता है या नहीं। बस शास्त्रों के लिखी लिखाई बातों पर सब आँखें बंद कर यकीन करते चले आ रहे हैं, जबकि ऐसा कभी कुछ होता नहीं। इतिहास में अबतक अरबों अरब मनुष्य मर चुके हैं और जन्म ले चुके हैं किंतु कोई नहीं बता सकता कि वह पूर्वजन्म में क्या था और क्या नहीं। यह भी एक भ्रमित करने वाले विचार से ज्यादा कुछ नहीं। चलो मान लिया कि दुष्ट लोग अपने पुनर्जन्म के बारे में नहीं बता सकते तो फिर महापुरुषों को तो बताना चाहिए, जबकि वो भी उसी प्रकार मौन है जैसे दुष्ट लोग मौन हैं। इसलिए पुनर्जन्म जैसा कुछ नहीं है। हाँ कभी कभी समाज में ऐसी घटनाएं देखने को मिलती है कि किसी ने किसी के यहाँ जन्म लिया और वह अपने पुर्नजन्म के वारे में सबकुछ बता रहा है। मगर ऐसी घटनाओं की ना कोई प्रमाणिकता होती और ना ही कोई सत्यता। यह केवल एक संयोग होता है।
उसी प्रकार ना कोई भाग्य होता ना कोई दुर्भाग्य होता और ना ही पूर्वाद्ध होता। सबकुछ भ्रमित करने वाले विचार है। मानव संस्क्रति मनुष्यों द्वारा रची गई एक जालनुमा रचना है जिसमें सबकुछ मनुष्यों के अपने कर्मों से ही नहीं होता बल्कि कुछ ऐसा भी होता है जो रचना मनुष्य नहीं चाहता वह भी होता है। जैसे अगर हम बेल्ट से हजारों लाखों घिरनियों को एक साथ जोड़ दें और फिर कोई व्यक्ति अंतिम घिरनी पर अपना हाथ रख ले और कोई व्यक्ति प्रथम घिरनी को चलाए तो निश्चित रूप से सभी घिरनी एक एक कर चलने लगेंगी और अंतिम घिरनी पर हाथ रखये व्यक्ति का हाथ उस घिरनी में दब कर चोट खा जाएगा। अब हम यह कहें कि यह उसका दुर्भाग्य था या पूर्वाद्ध था तो यह केवल मूर्खता होती। बल्कि सत्य तो यह होगा कि सभी घिरनी आपस में जुड़ी हैं जब एक चलेगी तो अन्य भी स्वतः ही उसके साथ चलना प्रारम्भ कर देंगी, जिससे किसी मनुष्य को लाभ होगा तो किसी को हानि, यह स्वाभाविक है।
इसलिए भाग्य दुर्भाग्य या पूर्वाद्ध जैसा कुछ नहीं होता जो होता है वह है मनुष्य के कर्म और उसकी वैचारिक एवं बुद्धिमानी। जो बुद्धिमानी, धैर्य एवं मेहनत करता है उसका भाग्य हमेशा उच्च ही रहता है फिर चाहे वह कुछ भी क्यों ना करे कितना भी दुराचरण क्यों ना करे। मंदिर के प्रांगण में जीवन जीने वाला ब्राह्मण हमेशा दरिद्र ही रहता है और वेश्याओं के साथ रहने वाला दलाल अमीर और आनंदित रहता है। इसमें भाग्य या दुर्भाग्य जैसा कुछ नहीं है।