आत्मा को ही सुनूँगा
जो मुझे कर दें विवश उन बेड़ियों को काट कर अब,
मैं निरन्तर शोध की संकल्पना को ही बुनूँगा।
धर्म की परछाइयाँ ही, जब मुझे खलने लगेंगी।
बन्द मुट्ठी की पहेली, सी मुझे छलने लगेंगी।
खेत में सद्भावना के, जब लगेंगे शूल उगने।
या कबूतर शांति के ही, जब लगेंगे शांति चुगने।
कान आँखे बंद होंगे जब स्वयं परमात्मा के
त्याग सारे पंथ अपनी आत्मा को ही सुनूँगा।
प्रेम के सन्मार्ग अपने, हैं पृथक उसकी दिशाएँ।
भक्ति, सच्चाई, दया, करुणा, समर्पण आस्थाएँ।
साधुओं का जब करेंगे, मार्गदर्शन ठग लुटेरे।
और दिनकर को लगेंगे, रोशनी देने अँधेरे।
पथ भ्रमित होने की यदि संभावना बढ़ने लगे तब,
मैं सतत एकाग्रता की साधना को ही चुनूँगा।
जब करें पाखंड मुल्ला, पादरी, पण्डे, पुजारी।
हों फँसे अभियोग में, चंदन तिलक, हल्दी, सुपारी।
मन्त्र जपना है जिन्हें जब, वे विदूषक दिख रहे हों।
पत्र जब अभ्यर्थना के, रक्त चूषक लिख रहे हों।
तब भजन, कीर्तन, श्रवण, पूजन, हवन सब छोड़कर मैं,
मानसिक संकल्प ले संवेदना को ही गुनूँगा।
राहुल द्विवेदी स्मित’