आत्महत्या
चार औरतें कोने मे
परस्पर करती बात
सकरपुर की उस गली मे
उस रोज काली भयंकर रात
ब्याकुल सारे लोग थे लेकिन
वो छोटा बच्चा रोता था
आज लद गया बोझ से कन्धा
जिस प्रहर रोज वो सोता था
माँ बहिन को सम्भाला पर
खुद को न संभाल सका
मृतक की सारी रस्म निभा कर
अग्नि मुश्किल से डाल सका
छुटकारा ही पाने को
जो गया उसका श्रम ख़त्म हुआ
आशाओ के माल थे जपते
माया का ये भ्रम ख़त्म हुआ
जिम्मेदारी ठुकरा करके
समाज नियमावली भंग हुई
नन्हे कंधो को यु झुका देखकर
आँखे मेरी दंग हुई
पीड़ जीवन मे उमड़ी इतनी
भाग गए हम संघर्ष छोड़कर
मौत को अपनी संगिनी बनाकर
परिवार का अपार हर्ष छोड़कर