आत्महत्या की नौबत क्यों आए?
जब इंसान का संघर्ष,
विफल हो जाता,
और संघर्ष वह नहीं कर पाता,
तब निराशा का भाव प्रबल होकर,
उसे जीवन जीने के,
सारे विकल्प से हताश-निराश,
आगे आने वाले उन लम्हों से,
जिससे वह जूझ रहा था अब तक,
फिर अपने निकट है पाता,
तब वह ऐसा निर्णय कर जाता,
और छोड़कर अपने,
सारे झंझटों से मुक्ति की चाह में,
जीवन जीने का मोह त्याग कर,
इस नश्वर शरीर को,
अपनों के लिए है छोड,
स्वंयम को प्रमात्मा में विलीन कर,
सब दुःखो से छुटकारा पा जाता।
क्या जीवन जीने का यही तरीका है,
क्या हमने अब तक यही सीखा है,
या संकट से उबरने की,
हमें कोई सीख नहीं मिली,
क्या हमने अपने आस पास,
संघर्षों में जुझने वालों की,
जीवन जीने में जीत नहीं देखी,
क्या उनका संघर्ष कठिन ना था,
या उनके साथ रहने वालों का,
उनके जीवन पर प्रभाव अधिक था,
कुछ तो था ,
जो उनमें जीवन जीने का भाव प्रबल था,
और इसी भाव ने उनका,
जीवन जीने को आसान बना दिया,
और तब तक जीया,
जब तक उसका जीवन जीना,
उसके जीवन का नैसर्गिक,
हिस्सा था।
हम सब इस समाज के प्राणी हैं,
एक में जीवन जीने का उल्लास,
खत्म हो जाता है,
क्योंकि उसके संघर्ष में,
कोई हाथ नहीं बंटाता है,
उसे उसके हाल पर छोड़ दिया जाता है,
जब उसको सहारे की होती है जरुरत,
हम मुंह मोड़ कर,
उसके आचरण पर,
करने लगते हैं,
बहस पर बहस,
और छोड़ देते हैं,
उसे उसके हाल पर,
मरने को,
बिना खाए तरस,
अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से बच कर।
वहीं दूसरी ओर,
वह भी है,
जिसके आस पास,
सब कुछ उसके अनुकूल है,
उसके लिए,
जुझने वालों का हुजूम है,
उसके एक इसारे पर,
सारी कायनात,
उसके आगे नतमस्तक है,
और यदि कोई उसके सामने,
प्रतिरोध खड़ा करने लगे,
तो उसे अपने अस्तीत्व को,
बचाने के लिए भी,
उसी की शरण में,
जाने का आदेश मिले,
तभी वह हताशा में आकर,
उठा ले कोई अनुचित कदम,
तब उसके हाल पर,
रोने को उसके ही लोग होते हैं,
और रोते हुए,उसी को कोश रहे होते हैं।
यह समाज दो भागों में बंटा हुआ लगता है,
एक को अपने जीवन जीने को,
हर कदम पर संघर्ष करना है,
और उसके संघर्ष के प्रतिफल में,
उसके हिस्से में कितना मिलना है,
इस पर भी उसका अख्तियार नहीं है,
उसमें उसके भरण पोषण का,
पुरा होगा,या नहीं?
इसका भी खयाल नहीं,
दिन-रात जो जुटा हुआ है,
खेत-सड़क-शरहद की सिमाओं में,
उनके श्रम का मुल्याकंन कहां है,
उनके निजी जीवन में,वह सुकून कहां है।
वहीं दूसरी ओर,
वह भी तो हैं,
जो हर किसी की सफलता में,
अपना ही योगदान पाते हैं,
हर किसी के परिश्रम में,
अपना ही खून –पसीना निहारते हैं,
उन्हें गुमान यह रहता है,
यह सब कुछ उसने ही तो,
संजोया है,
फिर इसके प्रतिफल में,
पहले उनका ही पहला हक है,
और यही कारण है कि,
एक ओर के संसाधनों पर,
इस अभिजात्य वर्ग को,
जन्मसिद्ध अधिकार मिल जाता है,
और दूसरी ओर,वह है,
जिसने अपना,
खून–पसीना- बहाया है,
वह टक-टकी लगाकर,
उनके सामने सर झुकाए खड़ा है,
यही इंसाफ बड़ा अजब-गजब है,
यह संसार अमीर-गरीब व मध्यम वर्ग में बंटा दिखता है,
एक तो सारे भौतिक सुखों से अटा पड़ा हैं,
दूसरी ओर वह हैं जिन्हें जरुरत के अनुसार मिल रहा है
और एक यह हैं जिनका जीवन अभावों से भरा पड़ा है।।
तो क्यों न ऐसी व्यवस्था बनाई जाए,
जहां किसी को आत्महत्या की नौबत ही क्यों आए।।