आत्मपरिचय
सत्य सनातन नित नूतन, जग तल पर छाने वाला हूँ
बनकर ज्योति दिग्भ्रमितों को, सन्मार्ग दिखाने वाला हूँ
मैं शांत क्लांत नीरव सा हूँ, शीतल सिंधु सा धीर लिए
अब गाकर राग भैरवी, सोते वीर जागने वाला हूँ
मैं पांचजन्य के कम्पन सा, सोए से पार्थ जगाता हूँ
मैं कवि की चेतन शक्ति सा, शब्दों से महल बनाता हूँ
मैं करुणा की चित्कार ध्वनि, जो चीरे पत्थर की छाती
लेकिन जो भृकुटि तन जाए, शत्रु की चिता जलाता हूँ
शरणागत होकर जो आये, मैं उसको हिये लगाता हूँ
जो प्रेमपूर्ण होकर पूछे, सारे रहस्य बतलाता हूँ
याचक होकर कोई मांगे, सर्वस्व दान कर दूं लेकिन
जो स्वाभिमान पर आ जाए लंका में आग लगता हूँ
ये जगत तमाशा है मुझको, मैं खुद पर जगत हंसाता हूँ
मैं नित्य बनाता महल कई, उतने ही रोज मिटाता हूँ
क्या रोकेंगे मुझको भौतिक लोलुपता, लालच के प्रपंच
मैं भृगु पुत्र लक्ष्मीपति की, छाती पर लात लगाता हूँ
मानवता की रक्षा खातिर, मैं कालकूट पी सकता हूँ
जो तप करने पर आ जाऊं, वायु पीकर जी सकता हूँ
पीने को तो पूरा सागर पीकर भी प्यासा रहता पर
कर दान अस्थियां निज तन की, युद्धों में देव जिताता हूँ
मैं काली बनकर धार रहा नित नर मुंडों की माला हूँ
जो बन मृत्यु सी धधक उठे मैं वही भभकती ज्वाला हूँ
मैं भीषण काले रौरव वाला, कालकूट का प्याला हूँ
जलते जौहर की ज्वाला हूँ, मैं रण आतुर मतवाला हूँ
मैं कुरुक्षेत्र की समर भूमि में चलते आयुध तीरों सा
चमके जिनका गौरव पल पल, महंगे मणि रत्नों हीरों सा
चीत्कार उठे अरिदल जिनके पदकरतल की आहट भर से
कर कर पर निज मस्तक धारण, लड़ते बलिदानी वीरों सा