आटा
लूटा दिया, मैने भी यौवन
खातिर तुम्हारी जान के
मैं भी तो चाहता था खिलना
महकना चाहता था शान से।
सखी पवन संग झूला- झूलना
हल्की-हल्की बरसात में
मस्ती करता था मैं भी कभी
बसंत की बारात में ।
था याद मुझे कर्तव्य
यौवन छोड़ा निर्भय
पकने लगा धूप में
आने लगा स्वरूप में ।
दाना बनना कर्म मेरा
खाना बनना धर्म मेरा
पीसने चला मैं घराटा
नाम मेरा हुआ तब आटा ।
दाने से मैं बन गया चूर्ण
तभी हुआ मैं सम्पूर्ण ।
हर प्राण की भूख मिटाकर
चला हूँ मैं सज – सँवरकर
आग, पानी संग मिलकर
भूख मिटाऊँ जी भरकर।
तृप्ति मन की पूर्ण कराऊँ
नाम अमर कर “आटा” कहलाऊँ।।
✍संजय कुमार “सन्जू”