आतंक, आत्मा और बलिदान
ऐ वतन !! मेरे वतन
कुछ लिखना चाहता हूं
कुछ कहना चाहता हूं
अपनी आत्मा का सवाल
अपने वतन का जलाल
माना, तुम मेरी मौत पर
बहुत रोए, फूल चढाए
मुझे तिरंगे में लपेटा
और नीर बहाये….
आंखों में तुम्हारी उतर
आया था खून
लेकर मशाल तुम निकले
पुतले फूंके, नारे लगाए…
मेरी मां को ढाढस बंधाया
मेरे बच्चों को गले लगाया
अर्थी के पास मेरी तुमने
गाया वंदे मातरम्, जय हिंद
और मैं एक किनारे पर पड़ा
वस्तु सा, निष्प्राण, नि:शरीर
यही सोचता रहा…क्यों नहीं
कुछ देर और रहे होते प्राण…
मैं तिरंगे को उठाता…चूमता
शठे शाठयम् समाचरेत बोलता
और कर देता आतंक का अंत।
माना, यह दुनिया की समस्या है
पर, अपनी भी बड़ी ‘तपस्या’ है।
कब तक यूं ही हम चूकते रहेंगे
कब तक यूं ही हम विदा होंगे..
बनते क्यों नहीं हम चौहान
भेदते क्यों नहीं शब्द बाण।
सुनो मेरे भारत!!
मिट्टी बताती है यहां सुभाष गरजे थे
भगत का वसंत, सुखदेव बरसे थे
लक्ष्मीबाई ने यहां भरी थी हुकांर
राम ने किया था रावण का संहार
सौ गाली देने पर शिशुपाल का
भी हो गया था आखिर अंत…
वह भी एक आतंक था
यह भी एक आतंक है।।
याद करो महाभारत
याद करो रामायण
दिन 18 महाभारत जीती
जलाकर पूंछ लंका फूंकी
गवाह है इतिहास हमारा
हम आतंक से कब हारे।
मिट गये हम सदा किंतु
सिंधु सिंधु हिन्द के नारे।।
-सूर्यकांत द्विवेदी