आज होता कृष्ण कोई
आज होता कृष्ण कोई
इस हृदय के मर्मभेदी और
व्यथित अर्जुन से कहता
नव उछाह उत्तेजना की
दो किरण मन में फैलाता
चिर सुषुप्त मेरे मन के
उग्र दानव को जगाता
आज होता कृष्ण कोई।
इस जगत में कर्म बन्धित
यह मनुज लाचार तो है
कर्म का फल आंकना भी
नियति से व्यभिचार तो है
उठ तू अर्जुन अपने मन मे
चेतना उद्दीप्त कर ले
और पंकिल इस जगत के
प्रयोजनों से मुक्ति कर ले
तेरा कर्म है युद्ध कर
तू खत्म कर दे
चर अचर सब
पुष्प भी विच्छिन्न कर दे
खत्म कर दे ये भ्रमर सब
अपने मन मे धीर सी
पर शक्त सी अरुणा को भर कर
युद्ध के इस नाद में
तू भूल जा अपना विगत सब।
कर्म के इस योग के
पहले कदम से मुझको कोई
कर्म मन्दिर के अतुल प्राणों
से आकर के मिलाता
आज होता कृष्ण कोई
आज होता कृष्ण कोई।
विपिन