आज बहुत ठंडक है
आज जब मैं
अपने गांव से
गुजर रहा था
एक कंकाल
नंगे शरीर
कानों पर गुदड़ी का
मफलर बांधे
दोनों हाथों को
विपरीत काँखों में दबाए
बलि के बकरे की तरह
खड़ा मुझे देख रहा था.
मै ऊनी पोशाकों में
कंकाल के पास पहुँचा
उसके दुख में
सम्मिलित हो
बोला-
आज बहुत ठंडक है.
मुझपर उसने दया की
और बोला-
बैठिए आप के लिए मैं
अलाव कर रहा हूँ
क्योंकि
सचमुच
आज बहुत ठंडक है.
मुझे भी
उसपर दया आ गयी
मैं अपनी ऊनी पोशाक
उसे देना चाहा
परन्तु
तभी मुझे
किसी की बात
याद हो आई
कपड़े वालों को
ठंडक लगती है
और मिल गया सहारा
मेरा स्वार्थी मन बोला
नहीं..नहीं..नहीं
इन्हें तो
ठंडक लगती नहीं
फिर मुझे
ठंडक लगेगी
क्योंकि
आज बहुत ठंडक है.
(यह कविता मैंने 11 फरवरी 1986 को लिखी थी. अविकल प्रस्तुत)