आज प्रस्तुत है सामयिक गीत
नवगीत
धीरे-धीरे खुशी गुम हुई
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फूल पत्तियाँ करें बगावत
पेड़ों से उद्यान से
गुमसुम होकर माली बैठा
क्या बोलेअरमान से
घर का कोना- कोना सूना
चौराहों पर भीड़ है
घुटन हो रही दरवाजे को
उजड़ रहा हर नीड़ है
हँसी-खुशी की घुनें न आती
अब तो किसी मकान से
सपने सबके अपने-अपने
रँगे हुये अनुराग से
उड़ने को तैयार खड़े हैं
पंछी अपने बाग से
सफर शुरू करना होगा अब
मोंह छोड़ सामान से
झुके हुये कंधों पर बोझा
फिर उजड़े निर्माण का
मुश्किल है इन हालातों में
यहाँ बचाना प्राण का
मुँह मोड़े सब खड़े हुये हैं
हँसते हुये बिहान से
सारे दर्पण टूट गये हैं
सही नहीं तसवीर है
कैसे कोई आगे जाये
पाँवों में जंजीर है
कोई आशा रही न बाकी
आज कहीं इन्सान से
घर की तुलसी रूठ गई है
घर से कुछ दिन पहले
क्या होगा यह सोच-सोचकर
रोज-रोज दिल दहले
धीरे-धीरे खुशी गुम हुई
अधरों की मुस्कान से
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~जयराम जय
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