आज, नदी क्यों इतना उदास है…..?
” मैं नदी हूँ नदी…
मुझे कुछ कहना है कहने दो…!
सदियों से बहती रही…
साथ सब कुछ लेकर मैं चलती रही ;
आज भी मुझमें निर्मल नीर बह जाने दो….!
मेरा बहना जीवन का एक अमिट प्रमाण है…
उर्वर अनमोल इस जीवन की, सक्षम आधार है…!
मुझमें बहती सरस नीर की धार…
न जाने कितने कुटुम्बों की है पालन हार…!
मैं.. प्यासे मन की प्यास बुझाती हूँ…
बंजर भू-भागों में हरियाली बन,
हरित क्रांति हरीतिमा रंग में लहलहाती हूँ…!
लाखों नहीं….कोटि-कोटि कहूंगी…
चराचर परजीव-सजीव की जीवन-धारा बन जाती हूँ…! ”
” मैं बह चली…
उच्च पर्वत-शिखर और अगम्य घाटियों से…!
मैं बह चली…
अभेद्य पाषाण चट्टान…
और विराट-विकराल कंदराओं से…!
न हुई मेरे गति में कोई रुकावट…
और न हुई मुझमें कोई ,
असहनीय विचलन सी घबराहट-आहट…!
मुझमें मलिनता की, न थी कोई परत…
मैं बह रही थी, सतत् और अनवरत…!
पर…
अब न बहुंगी….
किसी सरकारी नियमावली रेट से…!
न रोको आज मुझे,
बांधों की सीमाओं में…
न रोक मुझे, शहरीकृत अवसादों से…!
न कर मलिन मुझे….
प्रतिष्ठान रासायनिक उत्पादों से…!
और…..
न कर सुपूर्द आज मुझे…
उन स्वार्थ-आयामी, धनिक-बनिक,
गंगा मलिन कारों को…!
विकास की कुल्हाड़ी से तुमने मुझे…
न जाने कितनी बार खरोचा है…!
मुझ पर क्या बीती है….
या फिर बीतने वाली है,
क्या तूने….?
या किसी ने… कभी कुछ सोचा है…!
आधुनिकता की चकाचौंध…..
या
विकास की विचलित गति ने,
शायद तुमको बहकाया होगा..!
या फिर…..
किसी स्वार्थंधता की महकती माया ने,
शायद तुझे कुछ बरगलाया होगा…!
अब शायद नहीं कहुंगी…..,
हकीकत को बयां करती हूँ…!
अपनी वेदना को कहती हूँ…!!
न कोई अपरिचित हैं…
और न ही कोई है अनजान…!
हर कोई है चिर-परिचित उससे…
और हर कोई है संज्ञान…!
मेरी उद्गम है…
नीलकंठ-स्वयं-भू की जटा-स्थल…!
होता है जिसका निर्णय,
सर्वथा उचित अटल-सकल…!
लेकिन…
आज तेरे कृत्य-कर्म ने…
उसमें भी किया है अनुचित दखल…!
जहां भी मैं बहती हूँ……
वह सरस सलिल,
है आज कितना गरल…!
शेष भागों में रह गई है रेत-परत…
और
राजदारों के अनेक उच्च प्रासाद-महल..! ”
” मैं नदी हूँ नदी…
आज मुझे कुछ कहना है कहने दो…!
सदियों से बह रही हूँ….
आज भी मुझे अनवरत बहने दो….!
मैं हूँ….
भिन्न-भिन्न सभ्यताओं की अमिट साक्षी ;
मैं हूँ नेक-अनेक….
अक्षुण्ण परंपराओं की, जन्मदात्री…!
है गवाह जिसकी वेद-पुराण…..
और…
कर गए है उद्घोष ;
कई ज्ञानी-विज्ञानी-चतुर्वेदी-शास्त्री…!
आज फिर से कहती हूँ मैं….,
मुझमें निर्मल नीर…..
सतत् बह जाने दो…..!
होकर निर्बाध मैं……!
कुछ मुश्किलों से समझौता कर जाऊंगी…!
बहती हुई सरस सलिल से मैं…
तेरी वैदिक संस्कृति-सभ्यता को ,
पुनः पुष्पित-पल्लवित कर जाऊंगी…!
ये मेरी ललक है…..
या फिर…
कोई अपनी लालसा, मुझे कुछ पता नहीं ;
लेकिन….
सच कहती हूँ मैं…!
बनकर सरयू तट…
अयोध्या सी राम-राज्य बसाऊंगी…!
बनकर मोक्ष दायिनी क्षीप्रा सी…
उज्जैनी में ;
महाकालेश्वर जी की पद प्रक्षालन कर जाऊंगी…!
गंगोत्री से बहती हुई , गंगा बन… ;
पंच-केदार नाथ जी के चरण स्पर्श कर जाऊंगी…!
और
कांशी विश्वनाथ की दुर्लभ दर्शन कर ,
विश्व कल्याण की मंगल गीत भी गाऊंगी…
यमुनोत्री से निकलती हुई….
वृन्दावन यमुना तट पर ,
कृष्ण जी दुर्लभ लीला में शामिल हो जाऊंगी…!
और फिर…
प्रयाग राज की संगम तट पर…
हुई विलीन सरस्वती भगिनी से,
पुनः मिलन की निवेदन कर जाऊंगी…! ”
” मैं नदी हूँ नदी…..
आज मुझे कुछ कहना है कहने दो…..!
सदियों से बहती रही हूँ मैं…
आज भी मुझे तुम निर्बाध , सतत्-सरल ,
अनवरत-अविरल बह जाने दो…!
हे ” मनु ” के लाल….!
आज तुम इतना निष्ठुर न बनो…
मुझमें सरस और सरल गति की प्राण भरो…..!
मेरी निरवता….
निस्तब्ध…! होना ही ,
कुछ खतरों के संकेत है…!
अब मुझमें….
निर्मल नीर की कोई गति नहीं…
अब मेरी तल पर…. ,
केवल और केवल रेत ही रेत है…!
करतीं हूँ आज मैं तुम से अटूट वादा…
अभी भी है मेरी नेक इरादा…..!
अब न कोई उत्तर-दक्षिण-वासी होगा…
होगा तो केवल भारत वासी होगा..!
और अंततः…
फिर मैं भी अपने सागर से मिल जाऊंगी…!
फिर मैं भी अपने सागर से मिल जाऊंगी…!! ”
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