आज का दौर
आज के दौर में झूठ हक़ीक़त के जामे में
इस क़दर पेश होती है के सच लगने लगती है ,
अवाम भी फ़ितरत के फ़रेबे जाल में
जब फँसती है तो उलझती ही जाती है ,
खुदगर्ज़ सियासत की बिसात में अपनी ख़ुदी को खोकर मोहरा बन रह जाती है ,
फ़िरक़ापरस्ती की आग में खुद को जलाकर अपने आकाओं के इशारे की कठपुतली बन जाती है ,
इसे हम इल्म़ की कमी कहें या खुदगर्ज़ी का जुनूँ ,
जिसने इंसाँ की सोच में ताले डाल दिए हैं ,
जिसकी रौ में बहकर इंसाँ ने अपने अज़ीज़ों को गवाँ
अन्जाने दुश्मन पाल लिए हैं ,
जिस राह पर वो चल निकला उस पर उसे जुल्मो तश्शदुत के सिवा कुछ न मिलेगा ,
ताउम्र वो किसी अपने की हमदर्दी और
ज़ेहनी सुकूँ के लिए तरसेगा।