आज का इंसान
बेजुबां पत्थर की मूरत, पे वो जो लादते करोडो के गहने ।
दहलीज पे उसके ही, गरीबो के बच्चो को तरसते देखा है।।
सजे थे भोग छप्पन थाल मेवे, और भरे हुवे पकवान भी।
तो बाहर वहीं फटेहाल फ़कीर, को भूखा तड़पते देखा है।।
लद गऐ है कई रेशमी चादरे, हरी सी रहबरो के मजार पर।
फटेहाल बाहर बूढ़ी अम्मा, को तो ठंड से ठिठुरते देखा है।।
कई लाख गुरद्वारे में वो, जा जा कर के चढ़ावा दे दिए ।
पर चन्द रुपयों के खातिर, घर में आया बदलते देखा है।।
सुना है चढ़ा था सलीब पे, कोई दुनिया का दर्द मिटाने को।
आज चर्च में बेटे की मार से, माँ बाप को बिलखते देखा है।।
जलाती रही वो अखन्ड ज्योति, देसी घी की दिन रात जो।
आज प्रसव में कुपोषण के कारण, मौत से लड़ते देखा है।।
जिसने दी ही नही माँ बाप को, भर पेट रोटी कभी जीते जी।
आज उसके नाम का मरने के बाद, भंडारा सजते देखा है।।
दे के दुहाई समाज की, ब्याहा था जो बेटी बाप जबरन ।
आज अपने शौहर के हांथो, उसे सरे राह पीटते देखा है।।
मारा गया वो ज्ञानी पंडित, बे मौत सड़क दुर्घटना में यारो।
कालसर्प,तारे का माहिर, जिन्हें लकीरो को पढ़तें देखा है।।
जिस घर की एकता का, जमाना देता था मिसाल दोस्तों।
आज उसी की आँगन में, मैंने दीवारों को खिंचते देखा है।।
बन्द कर दिया सांपों को, सपेरे ने भी पिटारे में ये बोलकर।
अब तो इंसान से ही इंसान को, सांपो ने भी डसते देखा है।।
शर्म से हैं कब के जा मरे गिरगिट भी, ऐसा ही कुछ सोचकर ।
जबसे उसने अपने से अच्छा, नेताओ को रंग बदलते देखा है।।
जाने गिद्ध क्यो हुवें लापता, शायद भयभीत हो गए होंगे वो।
खुद से कहि अच्छि तरह, जब से आदमी को नोंचते देखा है।।
अब तो कुत्ते की जात भी, शर्मसार हुए है ये सब जानकर।
क्या मस्त तलवे चाटते, आज के इंसा को भौकते देखा है।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित १७/१२/२०१७)