आजादी के अलबम का पहला पन्ना
(1)
वे थे आजादी मांग रहे।
खुद को सूली पर टांग रहे।
वे भारत के दुख से पीड़ित थे।
पुरजन के दुख से दु:खित थे।
वे नहीं सिकंदर के ‘विस्तार’ से
लेश-मात्र भी झंकृत थे।
उनको अन्याय हिलाना था ।
हर अत्याचार झुकाना था।
उनको परिवर्तन लाना था।
उनको स्वराज्य ले आना था।
पर,उनका विद्रोह पुराना था।
फिर इसे दबाया जाना था।
उनकी जिद जंजीरें तोड़ेंगे।
और अंग्रेज़, हुकूमत छोड़ेंगे।
चिंगारी अब,कल ज्वाला बन,
फहराएँगे ध्वज मुक्त-गगन।
भारत भर में सशस्त्र क्रांति।
घर-घर से मिटेगी हर भ्रांति।
यह सोच देश पुत्रों का था।
आतुर हर देशभक्तों का था।
हर जगह विरोध अतिचारों का।
फूटा करता था गुब्बारों सा।
असंगठित ढंग का था विरोध।
इसलिए भंग होता था क्रोध।
हर कोने में क्रांति फैली थी।
थी स्वच्छ किन्तु,मटमैली थी।
एक वृहत् क्रांति की थी जरूरत।
व्यापक अशांति की थी जरूरत ।
कहीं कोई नहीं पुरोधा था।
खुद में खुद हर ही योद्धा था।
युद्ध स्वतन्त्रता का खुद था स्वतंत्र।
और बिखरा हुआ था यत्र-तत्र सर्वत्र।
खुद,अपनी पीठ थपथपाते थे।
आजादी के कुछ नारे गाते थे।
ऐसा न लड़ा जाता कोई संग्राम।
संगठन के बिना क्या? लड़े राम!
ऐसे संग्रामों का हुआ बुरा हश्र।
नायकत्व से हुआ रिक्त ‘रक्त’।
शासित का भाग्य बस शोषण था।
शोषण भी चरम ‘दुर्योधन’ था।
जनता को पता ही नहीं आजादी।
कैसी चिड़िया? थी वह आजादी।
उनतक जज्बा आजादी का।
उनको मतलब आजादी का।
क्यों चाहिए उनको आज़ादी।
कैसे मिल पाएगी हमें आजादी।
उनके अन्तर्मन को समझाना था।
समझें कि उन्हें उकसाना था।
पर, क्रांतिवीर के थे सोच अलग।
हम जागे हैं, जागेगा सारा जग।
पर, शिक्षा देने से ही मिलती है।
कोई शिला कभी न खुद हिलती है।
उनका मन उन्हें जगाना था।
पर्दा जो पड़ा था,सरकाना था।
कुछ हुआ न बस बलिदान हुआ।
कुछ क्रांतिवीर का प्राणदान हुआ।
कुंठित स्वातंत्र्य-संग्राम हुआ।
बेवजह ये प्रयास बदनाम हुआ।
हमारे वेद,पुराण,उपनिषद तथा।
सब लोक नृत्य व लोक कथा।
चिंतन ऋषियों के, गुरु परंपरा।
ईश्वर-दर्शन का दर्शन,शक्ति-परा।
ज्ञान,ध्यान व योगासन,समाधि।
सृष्टि व स्रष्टा का आदि-अनादि।
तम से प्रकाश,सत् और असत् से।
चलते रहे थे हम पथ प्रशस्त से।
जीने का सत्य, पद्धति जीने की।
तप,त्याग करें तपस्वी पाने की।
वसुधा कुटुंब और अतिथि देव।
निर्बल,निश्छल की रक्षा सदेह।
इस देव-भूमि का संकल्प बड़ा।
ईश्वर खुद आके हुआ खड़ा।
शांति,अहिंसा,सहिष्णुता का प्रवर्तक।
दानवी-सोच,आक्रांताओं ने किया त्रस्त।
सब तहस-नहस का हर हुआ प्रयास ।
सदियों तक ‘उस सत्ता’ से हटा विश्वास।
पर,पुन: अवतरण हुआ ईश सा गांधी का।
पता न था,है प्रकाट्य सुकारक आँधी का। सुकृत्य
राम ने लड़कर,कृष्ण लड़ाकर, गांधी ने दिया हटा,
वैभवशाली की सत्ता को सत्य,अहिंसा से धता बता।
गांधी का प्रवेश आकस्मिक था किन्तु, सामयिक।
जन का जीवन स्तर सुधरे,थी यह मंशा प्राथमिक।
थोड़ा गांधी के जीवन, बचपन और युवापन देखें।
जन्म प्रतिष्ठित हुआ,बाबा थे काबा गांधी सरीखें।
काबा गाँधी प्रधान-मंत्री पद से सेवा-निवृत हुए थे।
पोरबंदर के राज-काज से बहुत प्रतिष्ठित हुए थे।
थी शिक्षा असुलभ हुआ करती जब प्राय: बच्चों को।
उस काल-खण्ड में मिली उसे जो मिलती अच्छों को।
इस भारत-भूमि में प्रतिशत शिक्षा का जब निम्न रहा।
तब पा पाना सुंदर शिक्षा सौभाग्य से कहिए कम क्या!
बचपन की यादों को लिखते हुए गाँधी जी ये लिखते हैं।
जननी की धार्मिक-प्रवृति का सटीक कथा कहे दिखते हैं।
तब मैं साधारण, छुई-मुई और डरा हुआ सा बालक था।
पुस्तक ही मेरे मित्र-सखा,मेरे पाठ ही जैसे ‘मालक’ था।
सत्य हेतु निष्ठा की समझ बालक के मन में बड़ा सा था।
जब गुरु के कहने से भी नकल न करने को अड़ा सा था।
श्रवण और हरिश्चंद्र कथा का भाव अमिट गाँधी मन में।
ऐसा ये हुआ कि टिक गया प्रभाव श्रीमंत के पूरे जीवन में।